उस पुरानी मेज के इर्द-गिर्द हम चार-पांच लोग बैठे बतिया रहे थे। बात सतही तौर पर राजनीति से शुरू होती थी और बाजार भावों पर आकर अटक जाती थी। आप जानते ही हैं कि हम साधारण किरानी महज अपने दबे-ढंके आक्रोश व्‍यक्‍त करने के लिए ही ऐसी बातें करने को विवश होते हैं।

श्रीवास्‍तव हमारी बातों से निरपेक्ष मालूम पड़ता था और वह कुछ ही मिनटों में अपने चश्‍मे के कांच कई बार सिलवट भरे रूमाल से साफ कर चुका था। मेरी नजर मेज के नीचे गई तो मैंने देखा उसका एक जूता मेज के नीचे से खिसककर बहुत दूर जा चुका था। श्रीवास्‍तव वाकई एक विचित्र जीव था। किसी भी व्‍यंग्‍य, दुख या आक्रमण पर उसकी कोई भी प्रतिक्रिया पकड़ में नहीं आती थी। कई बार तो कुछ भद्दे मजाक हम सिर्फ इसलिए करते थे कि श्रीवास्‍तव हम पर भन्‍ना उठे, पर हमें घटिया बातें करते देखकर वह कुछ कहने के बजाय अपनी मिचमिची आंखें पटपटाने लगता था।

चश्‍मा हट जाने से श्रीवास्‍तव की आंखें बहुत भयंकर और गड्ढों में धंसी मालूम पड़ने लगती थीं। उसकी उम्र अच्‍छी खासी थी पर यह देखकर ताज्‍जुब होता था कि उसके सिर पर अभी तक एक भी सफेद बाल नहीं था। हां यह बात अलग थी कि उसकी देह का ढांचा एक ढीली खड़खड़ाती साइकिल का आभास देता था।

अपने आस-पास बैठे लोगों से बातें करते समय मेरी आखें बार-बार श्रीवास्‍तव के कोट की आस्‍तीनों पर चली जाती थीं। आस्‍तीनें कुहनियों की ओर सरकती जा रही थीं। बारह-चौदह वर्षों से उसके बदन पर हर जाड़े में यह कोट स्‍थायी जामे की तरह चढ़ जाता था और मार्च खत्‍म होने पर ही यह पेड़ से झड़े पत्तों की तरह अलग हट पाता था। लगता था लाऊन्‍ड्री वाला इस कोट को अब साबुन पानी से ही धोकर संतुष्‍ट हो लेता था।

मैं श्रीवास्‍तव से संभवतः उसके कोट को लेकर कुछ कहना ही चाहता था कि शंकर लाल मेरे सामने वाली कुर्सी छोड़कर उठा और एक डायरी खोलकर कुछ पढ़ते हुए श्रीवास्‍तव की बगल में जाकर खड़ा हो गया। उसने बहुत आहिस्‍ता से कोट की भीतरी जेब में हाथ डाला और एक बहुत जीर्ण-शीर्ण बटुआ निकालकर उसमें से रुपये निकालने लगा।

हम लोगों के लिए यह कम ताज्‍जुब की बात नहीं थी कि शंकर लाल जैसा फटीचर आदमी बटुआ निकालकर उसमें से पूरे सौ रुपये बाहर निकाले और श्रीवास्‍तव की आंखों के सामने लहराने लगे। इसी समय उसकी खरखरी आवाज हम सबने सुनी, ‘श्रीवास्‍तव जी, यह रखिए अपने उधार वाले रुपये।’

श्रीवास्‍तव ने, जिसकी आंखें जंगले के पार कहीं बहुत दूर कुछ देख रही थीं सहसा नोट की तरफ पलटीं और वह खांसकर बोला, ‘मैंने तो किसी को कोई उधार नहीं दिया।’

श्रीवास्‍तव और शंकर लाल के अलावा हम वहां तीन आदमी और भी थे पर किसी की समझ में यह बात नहीं आई की दो टुचियल से दिख पड़ने वाले लोग सौ रुपये को लेकर ऐसे उलझ रहे थे।

मैं यह भी भली प्रकार समझता था कि उन दोनों में से कोई भी हास-परिहास की तमीज नहीं रखता था इसलिए यह मानने को कोई कारण नहीं था कि वह दोनों सौ रुपये का दान-प्रतिदान कर रहे थे।

जब श्रीवास्‍तव ने रुपये की तरफ हाथ नहीं बढ़ाया तो फिर नहीं ही बढ़ाया। शंकर लाल के हाथ में सौ रुपये का नोट एक मरी चिड़िया की मानिंद झूलता देखकर दर्शनसिंह झुंझलाकर बोला, ‘असी नूं दे, सिरी वास्‍तव नूं कोई लोड़ नी खजूरी नोट दी।’

शंकर लाल ने दर्शनसिंह की बात पर कान नहीं दिया। वह श्रीवास्‍तव के और नजदीक जाकर फुसफुसाया, ‘श्रीवास्‍तव जी जब आपकी तबियत खराब थी तो आपने सौ रुपये मुझे दिए थे।’

अनासक्‍त भाव से श्रीवास्‍तव बोला, ‘मैंने कह तो दिया कि मैंने नहीं दिये, फिर मैं इन्‍हें क्‍यों ले लूं।’

भटनागर जमुहाई लेकर बोला, ‘नहीं लेते हो तो मत लो, शंकर लाल से लेकर इधर तो बढ़ा ही सकते हो। हमें सौ रुपये की इस टाइम सख्‍त जरूरत है।’

श्रीवास्‍वत रूखे स्‍वर में बोला, ‘मुझे क्‍या मतलब है, जिसका रुपया है वही जाने। आपको दे या किसी और को।’

शंकर लाल घिघियाया, ‘यार श्रीवास्‍तव, अपना रुपया लेकर छुट्टी करो – जैसे-तैसे काट पीटकर तो जुड़े हैं। अबकी टूट गये तो समझो हमेशा के लिए गए।’

मैंने जयपाल से कहा, ‘क्‍यों भई, यह क्‍या तमाशा कर रहे हैं यह दोनो फितूरी?’

जयपाल ने शंकर लाल से कहा, ‘शंकर महाराज, आखिर ये चक्‍कर है क्‍या?’

‘कुछ नहीं जी, उस जमाने की बात है – जब इन्‍हे सारी रात नींद नहीं आती थी और ये सबको रुपये बांटते घूमते थे। मुझे भी तभी रुपये दे गये थे। जो मैं वर्षों तक लौटा नहीं पाया। किसी तरह पांच रुपये माहवारी डाकखाने में डालकर दो बरस से सौ बनें हैं।’

यकायक हम सबको उन दिनों की याद ताजा हो उठी जब श्रीवास्‍तव एकाएक सनक गया था और उसे बड़े साहब ने हम सबके जोर देने पर बड़ी कठिनाई से पागलखाने जाने से रोका था। वह वाकई उन दिनों रुपये लुटाता घूमता था। जिन्‍हें हम बाद में उसकी पत्‍नी को वापस कर आया करते थे।

सहसा शंकर लाल ने डायरी खोलकर वह तारीख पढ़ी जिसमें श्रीवास्‍तव ने उसे रुपये दिये थे। फिर वह डायरी हम सबको दिखाते हुए बोला – ‘भाइयों, डायरी पक्‍की चीज है, कोर्ट तक में इसे शहादत की शक्‍ल में पेश किया जाता है।’ फिर वह श्रीवास्‍तव से बोला, ‘भले मानस अब तो मामला साफ है। अपने रुपये ले नहीं तो मुझे अगले जनम में मय सूद द सूद कर्जा चुकाना पड़ेगा।

श्रीवास्‍तव ने अपनी आंखें पटपटाते हुए शंकर लाल के हाथ से डायरी ली और उसे आंखों के एकदम नजदीक ले जाकर होंठों में बुदबुदाते हुए बांचने लगा।

हम सब एक विचित्र सी उत्‍सुकता और आशंका के बीच झूलते हुए श्रीवास्‍तव को देखने लगे।

शायद अब श्रीवास्‍तव को विश्‍वास हो चला था कि शंकर लाल पर उसके रुपये कर्ज की शक्‍ल में बाकी थे, जिन्‍हें वह वर्षों बाद उसे लौटाने जा रहा था।

जयपाल मेरे कान में फुसफुसाया, ‘अजीत बाबू, इस बकरे को आज पूरे सौ पड़े-पड़ाये मिल रहे हैं। एक हम हैं – कोई दस बार मांगने पर भी नहीं देता।’

मेरे मन में भी कचोट हुई, ‘हां यार जब इसने दिये थे तो इसे खुद ही कहां पता था, पर आज तो सौ इसे मुफ्त में ही मिल रहें हैं।’

मैं शायद अभी और भी कुछ कहता कि यकायक श्रीवास्‍तव का सिर ऊपर उठा और मोटे कांचों के पीछे झांकती आंखों में हल्‍का-सा कंपन हुआ और वे आंखें पथरा कर फिर बुझ गईं।

कुछ क्षणों की निस्‍तब्‍धता के बाद हम सबने श्रीवास्‍तव की आवाज सुनी, ‘शंकर जी, आप रुपया लौटाना चाहते हैं तो फिर सौ नहीं दो सौ चौवन रुपये पचहत्तर पैसे लौटाइये। इतने सालों का सूद भी इसमें जोड़ना पड़ेगा।’

श्रीवास्‍तव इतना कहकर हम सबसे तटस्‍थ होकर जंगले के बाहर कुछ देखने लगा। उसने फिर न शंकर लाल के हाथ में झूलते नोट को देखा, न ईर्ष्‍या-जिज्ञासा-कौतुहल में गोते खाते अपने सहयोगियों पर उसने नजर डाली। उसके रवैये से लग रहा था – गोया एक अवान्‍तर प्रसंग उपस्थि‍त हो जाने के कारण जंगले के बाहर उड़ती अबाबीलों की गिनती गड़बड़ा गई थी जिसे वह फिर नये सिरे से गिनने जा रहा है।

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