अनुभूति | प्रेमशंकर मिश्र
अनुभूति | प्रेमशंकर मिश्र

अनुभूति | प्रेमशंकर मिश्र

अनुभूति | प्रेमशंकर मिश्र

मैं महसूस करता हूँ
कि ये सितारे
मजबूरन मेरी पलकों पर अटके हैं
हसीन चाँदनी रातें
हो न हो
किसी जब्र-दबाव से ही काली है
ऐसा महसूस करता हूँ मैं।

लगता है
तट ने सन्यास ले लिया है
सन्‍नाटे की लहरें उठती हैं गिरती हैं
धारें टिक गई हैं
क्षण पर क्षण
मैं महसूस करता हूँ
कण झरते हैं
उड़े उड़े केश सँवरते हैं।
मन करता है पंछी बोले
और पड़ोसी खिड़की खोले।
सितारों की बेबसी
बिना किसी गर्मी के
नहीं मिलेगी
ऐसा मैं आजकल
रोज महसूस करता हूँ।

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