आँतों का दर्द | प्रेमशंकर मिश्र
आँतों का दर्द | प्रेमशंकर मिश्र

आँतों का दर्द | प्रेमशंकर मिश्र

आँतों का दर्द | प्रेमशंकर मिश्र

मेरे आँतों में
इधर कुछ दिनों से
एक मीठा-मीठा दर्द
पनप रहा है
इसे
मैं
कभी-कभी
अपनी दसों उँगलियों में
बड़ी शिद्दत से महसूस करता हूँ।

निहाई की चोटें
फिसल जाती है
बगल से पास होती हुई
विक्‍टोरिया के कोचवान का चाबुक
उसी क्षण
अनजाने में
मेरी पीठ से सट जाता है
और तब मैं
कमर सीधी करता हुआ
घरवाली के हाथे में पड़े
गंदे कार्ड की यूनिटें सहेजता हूँ

चीनी देकर चावल मँगाता हूँ।

मेरी आँतों का यह दर्द
प्रमाण-पत्रों को चाटने वाली
दीमकें भी नहीं खा सकीं
जो मेरी जिंदगी से चिमटी है।
आँतों का यह दर्द

अब धीरे-धीरे
फाइलों के
कॉमा फल-स्‍टॉपों में
अँटने लगा है
गीत गाते-गाते रोना
आँखे खोले-खोले सोना
पुलिस को मिला कर काम करना
भाग्‍यवानों के अहसान भरना
मेले में जीना
अकेले मरना आदि
साहब के
इन्‍ही इने गिने चोंचलों में
अब यह दर्द
कुछ-कुछ थमने लगा है।
इस सोने के यंत्र को
डीजल के सहारे
चलते दम तक
जब
मन और मनमोहिनी
दोनों
कोलाहल से दूर
नदी के टूटते कगार से
उछल-उछल
सूखी चाँदनी फाँकते हैं

बस इसी इतनी देर तक
मेरी आँतों का दर्द
कुछ हटा रहता है
पर अब ऐसा भी नहीं होता
मेरी आँतों का दर्द
अब क्रानिक हो गया है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *