मैं आपके सामने अपने एक रेल के सफर का बयान पेश कर रहा हूँ। यह बयान इसीलिए है कि सफर में मेरे साथ जो घटना घटी उसका कभी आप अपने जीवन में सामना करें तो आप अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ता झिटककर अपने भीतर बैठे आदमी के साथ उचित न्याय कर सकें।

सो जिस दिन का यह जिक्र है उस दिन गाड़ी में खूब भीड़ थी। अब तो गाड़ियों को खूब खचाखच भरी आने का एक रोग हो गया है। इसीलिए भले लोग सफर करने के पहले गाड़ी में अपने लिए बर्थ रिजर्व करा लेते हैं। पैसे देकर सीट प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन मैं बर्थ रिजर्व करा नहीं पाया था और लेने देने के पचड़े का मुझे अभ्यास नहीं था। ऐसी परिस्थिति में बड़ी परेशानी उठाकर मैं चार बर्थ वाले थर्ड क्लास के एक छोटे डिब्बे में अपने को टेकने भर के लिए जैसे तैसे स्थान प्राप्त कर सका।

डिब्बे में चारों तरफ मैंने नजर घुमाई तो उसमें मुझे आदमियों से असबाब ही अधिक दिखायी दिया। लकड़ी के खोखे, टीन के बक्स, बांस के बेडौल टिपारे और कई थैलियों ने बाकायदा तीन बर्थों पर ऊपर नीचे मजे की एक नुमाइश लगा रखी थी। मेरे मन में थोड़ी झुँझलाहट हो आई। मैंने कहा, यह भी एक ही रही। आदमियों के लिए यह डिब्बा ठहरा। लेकिन क्या यह असबाब भी अपने को कोई आदमी समझता है जो इसने इतनी सारी जगह पर बड़ी हिमाकत से कब्जा कर रखा है? जैसे इसके सामने नाचीज आदमी का कोई अस्तित्व ही नहीं। दुनिया में आदमी को आदमी नहीं प्यारा है, अपना असबाब प्यारा है, वह डिब्बा जैसे इस बात का खूब स्पष्टता से पुकार-पुकार कर प्रचार करता-सा लगा।

जब गाड़ी खुल गई और लोग दब-मुंद कर जहाँ-तहाँ बैठ गए तब मैंने अपने पास बैठे सहयात्री से पूछा – क्यों भाई इतना सारा सामान किसका है?

सहयात्री ने मुझे बताया – ‘उन सिंधियों का है बाबूजी।’ और उसने मुझे पहिचनवाने के लिए अपनी अंगुली दूसरी बर्थ पर बैठे हुए दो-तीन आदमियों की ओर घुमा दी। उसी यात्री ने आगे मुझे बताया – ‘मैं नागपुर से इनके साथ आ रहा हूँ बाबूजी। वहाँ एक सिपाही इनके साथ आकर सवारियों को हटाकर इनका सामान रखवा गया।’

मुझे किस्सा दिलचस्प लगा और मैंने उसके सूत्र को यहीं नहीं टूट जाने दिया।

मैं सिंधियों की ओर मुखातिब हुआ।

मैंने पूछा – ‘क्यों भाई, इतना सारा क्या सामान है?’

एक जरा अधेड़ उमर का सिंधी बोला – ‘यही बाबूजी कुछ कपड़ा और मनिहारी का सामान है। हम शरणार्थी लोग हैं। हमारा सब तो पाकिस्तान में छूट गया। अब कुछ रोजगार कर बाल बच्चों का पेट पाल लेते हैं।’

मैंने जवाब दिया – ‘मैं कहाँ तुम्हें अपने बाल-बच्चों के पेट पालने से रोकता हूँ। लेकिन यह तो आदमियों का डिब्बा है। ये बक्स और खोखे और थैले तुम्हें असबाब के डिब्बे में बुक करने थे।’

वही अधेड़ सिंधी बोला – ‘बाबू साब, इन्हें आदमियों के दर्जे में लाने के लिए हमने दस रुपये खर्च किए हैं।’

बात इस तीखे ढंग से कही गई कि उसका स्वाद मुझे जरा नमकीन लगा।

मैंने पूछा – ‘तुम्हारा मतलब?’

सिंधी बताने लगा – ‘बाबू साब, पाँच रुपये मैंने टिकट चैकर को दिए जिसने हमें ये सामान प्लेट फार्म के भीतर लाने दिया। तीन रुपये हमने पुलिस वाले को दिए जिसने आकर सामान डिब्बे में लदवाया और दो रुपये हमने कुली को सामान ढोने के दिए।’

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इसी दौरान एक टिकट-चेकर हमारे डिब्बे में आ पहुँचा। उसने भी सामान पर अपनी नजर घुमाई और पैसिंजरों की मुसीबत को भाँपा।

पैसिंजरों के टिकट चैक करने के बाद उसका प्रश्न हुआ ‘यह किसका सामान है?’

वही अधेड़ सिंधी बोला – ‘हमारा है हुजूर।’

टिकिट-चेकर छूटते ही कहने लगा – ‘तुम सिंधी लोग बड़ा खराब आदमी है। सरकार की मेहरबानी का गैर-वाजिब फायदा उठाता है? इतना सारा सामान गाड़ी में काहे लाद लिया। देखता नहीं, पैसिंजरों को तकलीफ होती है। तुम्हारे पास इस सामान का टिकट है?’

सिंधी इस प्रश्न के लिए जैसे पहिले ही तैयार था। वह न मालूम कितनी बार दोहराया हुआ अपना वही पहाड़ा पढ़ने लगा – ‘हम शरणार्थी लोग हैं – हमारा सब तो पाकिस्तान में छूट गया। हम आपकी दया पर पेट पालते हैं। लीजिए सिगरेट पीजिए।’

और सिंधी ने कैंची सिगरेट का एक नया पैकेट अपनी जेब से निकाल कर टिकट-चेकर साहब के हाथ में थमा दिया।

टिकट-चेकर ने सिगरेट का पैकेट लेते हुए और उसे अपने पास की माचिस से जलाते हुए पूछा – ‘सिगरेट नहीं, हम टिकट माँगता है। बताओ टिकट है?’

सिंधी बोला – ‘नहीं है हुजूर।’

‘तो बोलो कितना मन सामान है? हम रसीद बनाएगा।’ और टिकट-चेकर ने अपनी जेब से रसीद बुक निकाल ली।

‘दो मन होगा हुजूर।’

‘नहीं तुम झूठ बोलता है। ठीक-ठीक बताओ।’

‘तो तीन मन होगा हुजूर।’

‘नहीं ज्यादा है। ईमान से बोलो।’

‘तो फिर हुजूर, जितना समझते हों उतना लगा लें। हुजूर माई-बाप हैं।’

‘माई-बाप क्या। बे-टिकिट सामान लाता है और महसूल भी देना नहीं चाहता। गाड़ी तुम्हारे बाप का है?’

सिंधी चुप।

‘बोलो। तुम ठीक-ठीक बोलो। कितना मन सामान होने सकता है? हम तुम्हारी बात का ऐतबार करेगा। तुम पर अन्याय नहीं करेगा।’

सिंधी न मालूम क्यों फिर भी चुप ही टिकट-चैकर के सामने खड़ा रहा।

इसी बातचीत के दरम्यान गाड़ी एक दूसरे स्टेशन पर आकर रुकी। सिंधी और टिकट-चैकर डिब्बे से उतर कर नीचे प्लेटफार्म पर चले गए।

कुछ देर बाद गाड़ी चलने के पहिले, जब सिंधी वापस डिब्बे में लौट आया तब मैंने पूछा – ‘क्यों सांई क्या हुआ।’

सिंधी बोला – ‘होता क्या बाबू साहब। आदमी तो कुत्ता है। रोटी का टुकड़ा डाल दिया और उसका भोंकना बंद।’

सिंधी की बात ने मुझे बहुत गहरे तक चीर दिया। मैंने सोचा, यह सिंधी जो अपने स्वार्थ में दबकर अभी उस टिकट-चैकर से हुजूर-हुजूर कर रहा था और पूँछ हिला रहा था, क्या उतना ही बड़ा कुत्ता नहीं है जितना कि वह टिकट-चैकर। रोग अपने भीतर है और आदमी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसके कारण दूसरों में खोजता फिरता है। तब उसका इलाज उसे कहाँ मिले।

मैंने सिंधी से आगे सवाल किया – ‘क्यों सांई, यह बाजी तो तुमने मार ली। अब जहाँ तुम उतरोगे वहाँ कैसे बच पाओगे।’

सिंधी के पास जैसे इस सवाल का भी जवाब मौजूद था। वह चट से बोला – ‘वहाँ मेरी एक टिकट-चैकर से दोस्ती है वह जब-तब मेरी दुकान पर आता है तो जो सामान ले जाता है उसके पैसे नहीं देता।’

मैंने जैसे एकाएक दूसरे ही ढंग का सिंधी से प्रश्न कर दिया – ‘क्यों सांई, क्या यह अच्छा न हो कि तुम आदमी को कुत्ता न समझो और टिकट लो और ईमानदारी बरतो।’

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मेरी इस बात पर वह सिंधी जैसे तन कर खड़ा हो गया और बोला – ‘बाबू साहब, भला बताओ कौन आदमी आज ईमानदार है। आप जिसे कहो उसे मैं रिश्वत खिला कर बता दूँ। फिर यह तो बिजनेस है। दुबका-चोरी से दो पैसे हम महसूल में बचा लेते हैं तो दो पैसे सस्ता माल भी तो हम ग्राहकों को बेचते हैं। बताओ इसमें हम क्या बेईमानी करते हैं।’

मैंने सिंधी की बात का कोई जवाब नहीं दिया। जवाब देना नहीं चाहा। क्योंकि जिसने अपनी सफाई के लिए ऐसी मजबूत चौहद्दी बाँध रक्खी थी उसे जल्दी तोड़ना सरल भी तो नहीं था।

मैंने सिर्फ इतना ही कहा – ‘सांई, आदमी जब कुत्ता है तब वह ईमानदारी और बेईमानी क्या समझेगा।’

मालूम नहीं सिंधी मेरी बात समझा भी या नहीं। वह चुप होकर अपनी जगह पर बैठ गया। लेकिन मुझे अपने जवाब से ही संतोष नहीं हुआ। मैंने सिंधी पर करारा व्यंग्य किया। मगर उस व्यंग्य की गिरफ्त में मैं स्वयं ही फँस गया। मैं आदमियत का हामी था तो क्या मुझे सिंधी को कुत्ता बनाकर ही शांत हो जाना चाहिए था। यह कैसा भयानक विश्वास है जो आदमी को कुत्ता समझने को मजबूर करता है। मुझे सिंधी के इस विश्वास को तोड़ना चाहिए था और बताना चाहिए था कि यह आदमी की हार है। असलियत तो यह हो ही नहीं सकती। स्वार्थ से दबकर पूँछ हिलाना आदमी को नहीं सोहता। उससे लड़ने और उस पर काबू पाने में ही सच्ची इनसानियत है। मुझे सिंधी को समझाना चाहिए था कि वह टिकट चैकर से जाकर कहे – ‘नहीं मैं रिश्वत नहीं दूँगा। मैंने जुर्म किया है तो मुझे दंड मिले। मैं दंड के लिए तैयार हूँ।

तभी गाड़ी एक तीसरे स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई।

मैं अपनी सीट से एकाएक उठ आकर सिंधी के पास पहुँचा और बोला – ‘सांई, तुम गलती पर हो। आदमी कुत्ता नहीं है। जरा तुम मेरे साथ आओ तो।’

मैं तब सिंधी को साथ लेकर डिब्बे से उतरकर प्लेट फार्म पर उसी टिकट चैकर की खोज करने लगा। जब वह मिला तब मैंने पास बुलाकर उससे कहा – ‘देखिए इस सिंधी ने जितने दाम आपको दिए हैं उसमें बाकी जो हो मुझसे लेकर आप पूरे सामान से महसूल की एक रसीद तो बना दीजिए।’

टिकिट चैकर साहब मेरी बात सुनकर पहिले जरा सन्नाटे में आ गए। फिर जरा हँसकर बोले – ‘बाबू तुम पागल हुआ है। यह तो रोज का किस्सा है। यह लाला लोग मेहरबानी चाहता है और तुम जानता है कि मेहरबानी मुफ्त में नहीं बँटता।

मैंने जवाब दिया – ‘मैं इसी रोज के किस्से को तोड़ने आया हूँ। मैं तो आपसे मेहरबानी नहीं माँगता। महसूल की रसीद माँगता हूँ। जरा जल्दी कीजिए तो।’

तब सिंधी बोला – ‘बाबू साहब मेहरबानी के एवज में मैंने इन्हें पाँच रुपये दिए हैं।’

मैंने टिकट चैकर से कहा – ‘लीजिए जरा जल्दी रसीद बुक निकालिए और रसीद बनाइए।’

टिकट चैकर साहब ने तब बाकी पैसे मुझसे लेकर पूरे पाँच मन सामान की रसीद बना दी और मैं उसे लेकर सिंधी के साथ अपने डिब्बे में वापिस चला आया।

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सिंधी बोला – ‘बाबू साहब तुम तो महात्मा हो।’

मैंने जवाब दिया – ‘नहीं सांई, महात्मा नहीं, लेकिन कुत्ता भी नहीं। सिर्फ आदमी हूँ। मैंने तुम्हारे दस-दस साल के बच्चों को रातों में रेल के डिब्बों में गले में टोकनी बांधे चने बेचते देखा है। कुत्ता ऐसा नहीं करता। तुममें आदमी की मेहनत है। तब तुम आदमी के सम्मान को अपने स्वार्थ के लिए क्यों खोते हो?’

मेरी बात जैसे उस अधेड़ सिंधी व उसके साथियों को लगी। वे मेरे मुँह को टुकुर-टुकुर ताकने लगे और आपस में अपनी भाषा में न जाने क्या बतराने लगे।

थोड़ी देर बाद उसी सिंधी ने अपनी सफाई दी – ‘बाबू साब, आपका कहना सही है। लेकिन यह पापी पेट सब कराता है। बिजनेस क्या ईमानदारी को लेकर हो सकती है?’

मैंने सिंधी को समझाने की कोशिश की – ‘सांई तुम उस टिकट-चैकर से जाकर पूछो तो वह भी इसी पापी पेट की दुहाई देगा। यह पापी पेट इतने आगे है कि इससे आँखें नहीं चुराई जा सकतीं। पेट तो कुत्ता भी भरता है। किंतु इसलिए तुम्हें यदि कोई कुत्ता कहे तो क्या उसे गाली नहीं समझोगे? और वह गाली क्या तुम्हें नहीं लगेगी? देखो जैसे जहर की दवाई जहर है और काँटा काँटे से ही निकाला जाता है वैसे ही आदमी को ऊँचा समझो और स्वयं ऊँचे बनो। आदमी को कुत्ता समझने और स्वयं को कुत्ता बनाने से कुछ नहीं होने का।’

अबकी बार मेरा स्टेशन आ गया और मैं अपना सूटकेस और होल्डआल लिए डिब्बे से उतरने लगा।

तभी उस अधेड़ सिंधी ने मुझे टोका – ‘बाबू साहब, ये अपने पैसे तो लेते जाइए।’

मैं चकराया – ‘कैसे पैसे।’

सिंधी ने बताया ‘हमारे सामान का जो महसूल आपने दिया वह क्या मुझे आपको नहीं लौटाना चाहिए?’

मेरा चित्त प्रसन्नता से भर गया।

मैंने हँसकर कहा – ‘सांई, तुम शरणार्थी लोग हो और हमारी दया पर दावा रखते हो। तुम पैसे रखो। मैं नहीं लूँगा। पर देखो अब कभी तुम आदमी को कुत्ता मत समझना। अच्छा नमस्ते।’

मैं जब डिब्बे से उतरने लगा तब सिंधी ने जबर्दस्ती मेरे कोट की जैब में पैसे ठूँसते हुए कहा – ‘बाबू साब आप ही ने अभी कहा था कि हम सिंधियों में आदमी की मेहनत है। तब फिर हमें अपने सम्मान की रक्षा तो करने दो।’ और वह हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़ा रहा।

मेरी आँखों में आँसू छलछला आए और मैने झट अपने हाथ की अटैची और होल्डाल को वहीं दरवाजे पर पटककर सिंधी को अपनी छाती से लगा लिया।

मेरे रेल के सफर का बयान खतम हुआ। आप शायद यह गलतफहमी कर लें कि यह मनगढ़ंत मैंने अपनी अच्छाई का प्रचार करने के लिए की है। सो इस कारण मैं अपना यह फर्ज समझता हूँ कि आपको आगाह कर दूँ कि यह अच्छाई मेरी ही नहीं, आपकी सबकी है। सबके अंदर यह हलकी हलकी बिखरी हुई तैरती है। जरूरत है एक निश्चय की जो उसे संयोजित करके आदमी को कार्य के लिए बेचैन कर दे। मेरा भाग्य कि एक ऐसा ही कठिन निश्चय मुझे अपनी जिंदगी में हाथ लगा और मैं अपनी कल्पना को सही यथार्थ में बदल सका।

(भारती, 1951)

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