आ गए फिर लो मछेरे | राधेश्याम बंधु

आ गए फिर लो मछेरे | राधेश्याम बंधु

आ गए फिर
लो मछेरे, शब्द का ले जाल
कौन पूछे,
थकी-प्यासी, मछलियों का हाल ?

इस सदी की नदी में भी
अब नहीं पानी,
चीख  वाले  मौसमी
नाले भी बेमानी ।
दाँव दलदल में  फँसी,
हर  जिंदगी  बेहाल ।

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श्वेत बगुलों का लगा  है
झील पर पहरा,
कहाँ  राहत  योजना  का
नीर है ठहरा ?
पनघटों के कंठ सूखे,
हाँफते  हैं  ताल ।

बिना  चारा  भी  हमें
जालों में फँसना है,
मौन सीपी- शंख सा
हाटों में बिकना है ।

कौन तोड़ेगा
लुटेरे  घाट  की  हर चाल ?
आ गए फिर
लो  मछेरे, शब्द का ले जाल ?

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