याद है क्या तुम्हें | अलेक्सांद्र ब्लोक
याद है क्या तुम्हें | अलेक्सांद्र ब्लोक

याद है क्या तुम्हें | अलेक्सांद्र ब्लोक

याद है क्या तुम्हें | अलेक्सांद्र ब्लोक

याद है क्‍या तुम्‍हें वह दिन
जब सोया पड़ा था हरा जल,
जब हमारे सुस्‍त तट पर
पंक्तिबद्ध प्रवेश किया था चार जलयानों ने ?

मटमैले रंग के थे वे चार,
परेशान करते रहे देर तक, ये सवाल
महत्‍वपूर्ण व्‍यक्तियों की तरह हमारे सामने
चल रहे थे साँवले-से चार नाविक।

दुनिया हो गई थी विशाल, आकर्षक
तभी अचानक पीछे मुड़ने लगे युद्धपोत,
दिखाई दे रहा था किस तरह वे
छिप गए समुद्र और रात के अंधकार में।
सेमाफोर ने दिए अंतिम संकेत,
उदास टिमटिमाने लगे प्रकाश-स्‍तंभ,
लौट आया था समुद्र
अपनी पुरानी दिनचर्या में।
बहुत कम चीजों की जरूरत

रहती है हम शिशुओं को इस जीवन में
कि मामूली-सी किसी नई चीज पर
खिल उठता है हमारा मन।

यों ही खरोंचना जलयानों पर
जेबी चाकू से दूर के देशों की धूल –
दुनिया दोबारा दिखने लगती है अजनबी
रंगीन कुहरे से घिरी हुई।

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