विंडोज | मृत्युंजय
विंडोज | मृत्युंजय

विंडोज | मृत्युंजय

विंडोज | मृत्युंजय

खिड़कियाँ झाँकने की ललक पैदा करती थीं
मीठी हवा के झोंके आते थे उनसे
तब खिड़कियों का मतलब एक अलग रास्ता भी हुआ करता था
जिससे निकल भागती थीं घरों में कैद की गई इच्छाएँ,
स्त्रियाँ और सताए गए बच्चे
कभी-कभार चोर भी आ जाया करते थे उसी रस्ते
हालाँकि मजबूत लकड़ी के पल्ले खिड़कियों को धकेल दिया करते थे घर के भीतर
पर लकड़ी, टूटने की संभावना का अर्थ भी रखती थी
यों तब खिड़कियाँ दरवाजों का विकल्प थी कइयों के लिए

फिर खिड़कियों में सींखचे लगने लगे
मजबूत लोहे की सलाखों ने खिड़की के अर्थ का एक हिस्सा
कैद कर दिया, परिवार के मुखिया ने मुस्कुराकर इसका स्वागत किया
अच्छे-भले घर को कैदखाना बनाना आखिर किसे अच्छा नहीं लगता है ?
अब इन सलाखों से टकराने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था
इनसे टकराकर गिरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था
पर अभी भी खिड़कियों से चीख बाहर जा सकती थी
आवाज अभी कैद नहीं हुई थी, न ही प्रेम

लोग जब भूल चुके थे टकराना, उनके सर लहू से तर हो गए थे जब
तब अवतरित हुईं काँच से सजी-धजी छन्न-छन्न खिड़कियाँ
पुरानी खिड़कियों की परंपरा से एकदम अलग-थलग
ये आवाजरोधी खिड़कियाँ थीं

ये उतनी मजबूत तो नहीं थी पर दमघोंटू थीं
हवा, कीट, फतिंगे, मच्छर, रोशनी सब के सब
कोई बाहर से भीतर नहीं आ सकता था
पर अभी भी ये खिड़कियाँ दो दुनियाओं को जोड़ने वाली थीं
अभी भी इनके खुलने की नन्हीं ही सही आस बाकी थी
अभी भी हुलसकर कभी-कभार कोई खिड़कियों के कमजोर होने और
उनके टूट सकने की संभावना के अंतर्संबंधों पर सोचता था

किंतु युग बदला व आया सर्व-आभासी
अब खिड़कियाँ आभासी थीं
वे वहाँ खुलती थीं जहाँ मालिकान खोलना चाहते थे उन्हें
अब भी इस तरफ और उस तरफ के बीच में खिड़की ही थी
पर इनके बीच की दूरी अलंघ्य थी
इनमें सब कुछ था बतर्ज यन्न भारत – तन्न भारत
हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, प्रेम और विद्रोह भी
आभासी-आभासी, आभासी-आभासी सर्वमाभासी

अब हमारे सब के घर में एक खिड़की थी
इन्हीं खिड़कियों से झाँकते रहते थे हम उनको जिनके घरों में खिड़कियाँ थी
और उनके जिनके घरों में खिड़कियाँ नहीं थीं
खिड़कियाँ ही हमारी आँख-कान और त्वचा बन रही थीं
दुख को भी इसी रास्ते महसूस करते थे हम
इसी रास्ते उससे लड़ते थे
और यहीं नई दुनिया भी बना लेते थे
मालिकान के नियमों के मुताबिक इस खेल में

जैसा की हर लोकतंत्र में होता है
लोकतंत्र के इस मैदान की सीमा-रेखाओं पर भी अमरीका का पहरा था
जब भी वह चाहता इस खेल के नियम बदल जाते थे
तेज-तर्रार खिलाड़ी खरीद लिए जाते – गायब कर दिए जाते

यों हम सब बैठे हैं एक विराट खिड़की के भीतर
सारी खिड़कियाँ एक ही जगह खुलती हैं
उस जगह की एजेंट हैं खिड़कियाँ
वहीं से आते हैं विचार, ज्ञान और शक्ति भी
भक्ति भी

जिन सभ्यताओं को बम से उड़ाना होता है उन्हें
उन्हें पहले खिड़कियों के रास्ते बूझते हैं वे
तैयार करते हैं, नए वस्त्र पहनाते हैं, सुगंधों से पूरित करते हैं
शरीर को कमनीय और सुगढ़ बनाते हैं और त्वचा को मुलायम
तब जाकर करते हैं वध

दोस्त अहबाब सोचते हैं एक दिन इस सब पर उनका दावा होगा
तब जाकर तस्वीर असल दिख पाएगी
मैं उनके ही साथ खड़ा हूँ डरता बेहद डरता हूँ
मुझको लगता है कमजोरी यहाँ नहीं छिप पाएगी।

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