व्यवसाय | दिव्या माथुर
व्यवसाय | दिव्या माथुर

व्यवसाय | दिव्या माथुर

व्यवसाय | दिव्या माथुर

मज़हब जिनका भारी जेबें
ताज़ा कलियाँ उपलब्ध उन्हें
हर रात नई सोने की लौंग
एक बिस्तर नहीं नसीब जिन्हें

खिड़की से झाँक बुलाती हैं
चौखट पर खड़ी रिझाती हैं
पिछली रात की चोट छिपा
वे होंठ काट मुसकाती हैं

नायलोन की साड़ी पर
पड़ गए पुराने धब्बे सूख
चुक जाते हैं बदन कई
पर मिटती नहीं सेठों की भूख

दलाल इधर दबोचते हैं
तो ग्राहक उधर खरोंचते हैं
हो गर्भपात या कि रक्त रक्तस्राव
कभी तन्हा इन्हें न छोड़ते हैं

बख़्शीश लोग दे जाते हैं
गहना रुपया और यौन रोग
उपयुक्त थीं केवल यौवन में
मृत्यु पर इनकी किसे शोक
नगरवधू दासी गणिका

क्यूँ आज हुइँ रंडी वेश्या
क्यूँ आक़ा इनका ख़ून चूस
इन्हें लूट के हो जाते हैं हवा
समुचित आदर है आज जहाँ
बाक़ी के सब व्यवसायों का
लिहाज़ क्यूँ नहीं जग करता
इन अनाम अबलाओं का

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *