टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप
टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप

साढ़े सात बजे कमरे में
टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप!!

सुबह हुई अलार्म बजे से
‘जमा करो पानी’ का जोर
इधर बनाना टिफिन सुबह का
उधर खाँसते नल का शोर
दो घंटे के इस ’बादल’ से
करना वर्तन सरवर-कूप!

लटका टूटा कान लिए कप
बुझा रही गौरइया प्यास
वहीं पुराने टब में पसरे
मनीप्लांट में जिंदा आस
डबर-डबर-सी आँखों में है
बालकनी का मनहर रूप!

एक सुबह से उठा-पटक, पर
इस हासिल का कारण कौन 
आँखों के काले घेरों से
जाने कितने सूरज मौन
ढूँढ़ रहे हैं आईने में
उम्मीदों का सजा स्वरूप! 

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