टैरू | पंकज चतुर्वेदी
टैरू | पंकज चतुर्वेदी

टैरू | पंकज चतुर्वेदी

कुछ अर्सा पहले 
एक घर में मैं ठहरा था

आधी रात किसी की 
भारी-भारी साँसों की आवाज़ से 
मेरी आँख खुली 
तो देखा नीम-अँधेरे में 
टैरू एकदम पास खड़ा था 
उस घर में पला हुआ कुत्ता 
बॉक्सर पिता और 
जर्मन शेफ़र्ड माँ की संतान

दोपहर का उसका डरावना 
हमलावर भौंकना 
काट खाने को तत्पर 
तीखे पैने दाँत याद थे 
मालिक के कहने से ही 
मुझको बख़्श दिया था

मैं बहुत डरा-सहमा 
क्या करूँ कि यह बला टले 
किसी तरह हिम्मत करके 
बाथरूम तक गया 
बाहर आया तो टैरू सामने मौजूद 
फिर पीछे-पीछे

बिस्तर पर पहुँचकर 
कुछ देर के असमंजस 
और चुप्पी के बाद 
एक डरा हुआ आदमी 
अपनी आवाज़ में 
जितना प्यार ला सकता है 
उतना लाते हुए मैंने कहा : 
सो जाओ टैरू !

टैरू बड़े विनीत भाव से 
लेट गया फ़र्श पर 
उसने आँखें मूँद लीं

मैंने सोचा : 
सस्ते में जान छूटी 
मैं भी सो गया

सुबह मेरे मेज़बान ने 
हँसते-हँसते बताया : 
टैरू बस इतना चाहता था 
कि आप उसके लिए गेट खोल दें 
और उसे ठंडी खुली हवा में 
कुछ देर घूम लेने दें

आज मुझे यह पता लगा : 
टैरू नहीं रहा

उसकी मृत्यु के अफ़सोस के अलावा 
यह मलाल मुझे हमेशा रहेगा 
उस रात एक अजनबी की भाषा 
उसने समझी थी 
पर मैं उसकी भाषा 
समझ नहीं पाया था

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