सुनो, मैं तुम तक पहुँचना चाहती हूँ... | प्रतिभा कटियारी
सुनो, मैं तुम तक पहुँचना चाहती हूँ... | प्रतिभा कटियारी

सुनो, मैं तुम तक पहुँचना चाहती हूँ… | प्रतिभा कटियारी

सुनो, मैं तुम तक पहुँचना चाहती हूँ
तुम्हारे तसव्वुर को हथेली पर लेकर
हर रात निकल पड़ता है मेरा मन
दहलीज के उस पार…
मैं तुम्हारे शहर की हवाओं में
घुल जाना चाहती हूँ,
तुम्हारे कंधे पर गिरने वाली ओस
बनना चाहती हूँ
जिन रास्तों पर भागते-फिरते हो तुम
मैं उन रास्तों के सीने में समा जाना चाहती हूँ
सुनो, मैं बारिश होना चाहती हूँ
तुम्हारे घर से निकलते ही
तुम पर बरस पड़ने को बेताब
जानती हूँ तुम्हें आदत नहीं है
रेनकोट रखने की…
मैं धूप बनना चाहती हूँ कि
अपने भीगे हुए मन को सुखाने
तुम मेरे ही सानिध्य को तलाशो
और मैं छाया बनना चाहती हूँ
कि तेज धूप से तंग आकर
तुम मेरी तलाश में दौड़ पड़ो…
सुनो, मैं धड़कन बनना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने में बस जाना चाहती हूँ
हमेशा के लिए
कि ये देह छूटे भी तो मैं
जिंदा ही रहूँ…
सुनो, मैं तुम्हारी आवाज होना चाहती हूँ
कि जब मौसम आलाप ले रहा हो
मैं तुम्हारे कंठ से सुर बनकर छलक उठूँ,
इंद्रधनुष होना चाहती हूँ
कि हमेशा पहनो तुम मेरा ही कोई रंग
मैं चाँद होना चाहती हूँ
कि तुम्हारे साथ रहूँ हमेशा
सितारे होना चाहती हूँ
कि तुम्हारा व्यक्तित्व
झिलमिलाता रहे हरदम…
नदी होना चाहती हूँ कि
तुम्हारी प्यास मेरे ही किनारों पर बुझे,
पहाड़ होना चाहती हूँ कि
तुम्हारे भीतर मेरे होने का अर्थ हो
तुम्हारा विराट व्यक्तित्व
नहीं, मैं दीवारों में कैद नहीं होना चाहती
मत, रोकना मेरी ख्वाहिशों के विस्तार को
मैं तुम्हें लेकर आसमान में उड़ना चाहती हूँ
मैं कुछ भी नहीं चाहती तुम्हारे बिना
‘तुम’ आखिर ‘मैं’ ही तो हो…

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