सपने | रमेश पोखरियाल
सपने | रमेश पोखरियाल

सपने | रमेश पोखरियाल

सपने | रमेश पोखरियाल

पूछो जरा इन सपनों से, क्यों चले आते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।

कभी किसी स्वर्ण महल में
यों ही बिठा जाते हैं,
कभी बेबस बीहड़ों में
कहीं छोड़ आते हैं।
प्यार कभी देते हमें कहर कभी ढाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।

कल्पना से परे कभी
राजा भी बनाते हैं,
पल भर में रंक बना
जाने क्यों सताते हैं।
निराशा में धकेल कभी, विजय गीत गाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।

बाल कभी युवा सा
वृद्ध भी बनाते हैं,
कभी रूठ जाते हैं तो
रात भर जगाते हैं।
कल्पना के लोक में हँसाते ये रुलाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।

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