रूढ़ियाँ | अनिल कुमार पुरोहित
रूढ़ियाँ | अनिल कुमार पुरोहित

रूढ़ियाँ | अनिल कुमार पुरोहित

रूढ़ियाँ | अनिल कुमार पुरोहित

सारे घर में घूमती रहती
निःसंकोच, निर्भय –
पैरों में बँधे घुँघरू,
बजते रहते-छन, छन, छन।
एक पल भी बैठती नहीं
पास मेरे चैन से –
बीच कदमों से निकल भागती।
खाना दो तो-कतरा जाती,
जाने कुछ ढूँढ़ रही, घर में मेरे
बस घूमती ही रहती बेचैन सी
छन, छन, छन।

अनायास ही कूद खिड़की
जाने कहाँ चली जाती।
धीरे-धीरे आवाज घुँघरुओं की
कमजोर पड़ने लगती –
बस दूर तक-देखता उसे मैं
ओझल होते लाल-पीले फूलों से
दूर लहलहाती झाड़ियों की ओट से।
काले, भूरे चितकबरे रंगों की
सफेद स्याह, वह बिल्ली।

फिर अचानक चौंक कर
उठ पड़ता – गहरे स्वप्न से
देखता पास खड़ी
घूरती – लाल लाल आँखों से
अजीब सी, डरावनी –
पर भोली-भाली, प्यारी बिल्ली।

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