पुराना पेड़ | महेश वर्मा
पुराना पेड़ | महेश वर्मा
वह दुख का ही वृक्ष था
जिसकी शिराओं में बहता था शोक
दिन-भर झूठ रचती थीं पत्तियाँ हँसकर
कि ढका रह आए उनका आंतरिक क्रंदन
एक पाले की रात
जब वे निःशब्द गिरतीं थीं रात पर और
ज़मीन पर
हम अगर जागते होते थे
तो खिड़की से यह देखते रहते थे
देर तक