बेचारी पूर्णा, पंडाइन, चौबाइन, मिसराइन आदि के चले जाने के बाद रोने लगी। वह सोचती थी कि हाय। अब मैं ऐसी मनहूस समझी जाती हूं कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत काटने दौड़ती हैं। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना बदा है। या नारायण। तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मुझ पर न जाने क्या कुमति सवार थी कि सिर में एक तेल डलवा लियौ। यह निगोड़े बाल न होते तो काहे को आज इतनी फ़जीहत होती। इन्हीं बातों की सुधि करते करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी कि बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं तब उसने सिर पर हाथ मारकर कहा—वह जब आप ही आप आते है तो मै कैसे मना कर दूँ। मै। तो उनका दिया खाती हूँ। उनके सिवाय अब मेरी सुधि लेने वाला कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने में हरज ही क्या है। बेचारे सीधे सादे भले मनुष्य है। कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं। फिर उनके आने में क्या हरज है। जब वह और बड़े आदमियों के घर जाते है। तब तो लोग उनको ऑंखो पर बिठाते है। मुझ भिखारिन के दरवाजे पर आवें तो मै कौन मुँह लेकर उनको भगा दूँ। नहीं नहीं, मुझसे ऐसा कभी न होगा। अब तो मुझ पर विपत्ति आ ही पड़ी है। जिसके जी में जो आवै कहै।

See also  परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा: लाला श्रीनिवास दास

इन विचारों से छुटटी पाकर वह अपने नियमानुसार गंगा स्नान को चली। जब से पंडित जी का देहांत हुआ था तब से वह प्रतिदिन गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अंधेरे जाती और सूर्य निकलते लौट आती। आज इन बिन बुलाये मेहमानों के आने से देर हो गई। थोड़ी दूर चली होगी कि रास्ते में सेठानी की बहू से भेट हो गई। इसका नाम रामकली था। यह बेचारी दो साल से रँडापा भोग रही थी। आयु १६ अथवा १७ साल से अधिक न होगी। वह अति सुंदरी नख-शिख से दुरूस्त थी। गात ऐसा कोमल था कि देखने वाले देखते ही रह जाते थे। जवानी की उमर मुखडे से झलक रही थी। अगर पूर्णा पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भाति खिली हुई थी। न बाल में तेल था, न ऑंखो में काजल, न मॉँग में संदूर, न दॉँतो पर मिससी। मगर ऑंखो मे वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठों पर वह मनभवानी लाली थी कि जिससे बनावटी श्रृंगार की जरूरत न रही थी। वह मटकती इधर-उधर ताकती, मुसकराती चली जा रही थी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े मनोहर भाव से हंसकर बोली—आओ बहिन, आओ। तुम तो जानों बताशे पर पैर धर रही हो।

See also  श्रीकांत अध्याय 19

Further Reading:

  1. प्रेमा पहला अध्याय- सच्ची उदारता
  2. प्रेमा दूसरा अध्याय- जलन बुरी बला है
  3. प्रेमा तीसरा अध्याय- झूठे मददगार
  4. प्रेमा चौथा अध्याय- जवानी की मौत
  5. प्रेमा पाँचवां अध्याय – अँय ! यह गजरा क्या हो गया?
  6. प्रेमा छठा अध्याय – मुये पर सौ दुर्रे
  7. प्रेमा सातवां अध्याय – आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी
  8. प्रेमा आठवां अध्याय- कुछ और बातचीत
  9. प्रेमा नौवां अध्याय – तुम सचमुच जादूगर हो
  10. प्रेमा दसवाँ अध्याय – विवाह हो गया
  11. प्रेमा ग्यारहवाँ अध्याय – विरोधियों का विरोध
  12. प्रेमा बारहवाँ अध्याय – एक स्त्री के दो पुरूष नहीं हो सकते
  13. प्रेमा तेरहवां अध्याय – शोकदायक घटना
See also  परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता: लाला श्रीनिवास दास