पिता | यश मालवीय
पिता | यश मालवीय

पिता | यश मालवीय

पिता | यश मालवीय

तुम छत से छाये
जमीन से बिछे
खड़े दीवारों से
तुम घर के आँगन,
बादल से घिरे 
रहे बौछारों से।     
 

तुम अलबम से दबे पाँव 
जब बाहर आते हो 
कमरे-कमरे अब भी अपने 
गीत गुँजाते हो 
तुम वसंत होकर 
प्राणों में बसे 
लड़े पतझरों से 
तुम ही चित्रों से 
फ्रेमों में जड़े  
लदे हो हारों से। 
 

तुम किताब से धरे मेज पर 
पिछले सालों से 
आँसू बन कर तुम्हीं ढुलकते 

दोनों गालों से 
तुम ही नयनों में 
सपनों से तिरे 
लिखे त्योहारों से 
तुम ही उड़ते हो
बच्चों के हाथ,
बँधे गुब्बारों से।
 

यदा-कदा वह डाँट तुम्हारी 
मीठी-मीठी सी 
घोर शीत में जग जाती है 
याद अँगीठी सी 
तुम्हीं हवाओं में 
खिड़की से हिले 
बहे रसधारों से 
तुम ही फूले हो 
होठों पर सजे 
खिले कचनारों से। 

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *