पिता | नेहा नरूका
पिता | नेहा नरूका

पिता | नेहा नरूका

पिता | नेहा नरूका

मन ही मन नफरत करती हूँ तुमसे
मैं उसी दिन से पिता
जब तुम मुझसे पूछने का नाटक करके
(या सच कहूँ तो पूछे बिना ही)
उस बिन पेंदी के आदमी के संग ब्याह आए थे मुझे
जिसके साथ मेरी कभी न बन सकी
हालाँकि उस आदमी की पहचान तुम्हें हो गई थी
उस वक्त ही
जब वह सेहरा बाँधकर खड़ा था द्वार पर
किस तरह छोटी-सी बात का उसने बनाया था बड़ा बतंगड़
और तुम्हारे पचास ‘माफी’ के बावजूद भी
उसकी अकड़ जैसी की तैसी थी
मुझे प्यार करने का दावा करने वाले पिता
क्या तुम उस समय नहीं तोड़ सकते थे
यह रिश्ता
जिसे रो-ढोकर मैं बनाने जा रही थी
तब परिवार, समाज और लाख रुपयों की वजह से
तुम नहीं ले पाए कोई निर्णय
समाज क्या कहेगा
फिर से इतने लाख रुपए कैसे जुट पाएँगे…
दूसरी लड़की के लिए भी तो धन जुटाना है
ढूँढ़ना है लड़का फिर से अपनी ही जाति में
उस दिन जब तुम मुझे विदा कर रहे थे
और मैं रोए जा रही थी
इसलिए नहीं की मैं बिछ्ड़ रही थी तुमसे
बल्कि इसलिए
कि मुझे एहसास हो गया था
पिता किसी को प्यार नहीं करते
पिता बस परंपराओं और समाज की गढ़ी मान्यताओं का निर्वाह करते हैं
माँ मुझे समझाती है
तुम्हारे पिता भी पहले कोई कम थोड़े ही थे
मेरे ब्याह में एक अँगूठी के लिए क्या-क्या नाटक नहीं किए
तीन दिन तक मुँह में कौर नहीं रखा था तेरे नाना ने
चौथे दिन जब मैं गई तब कहीं उन्होंने खाना खाया
देखना सब बदल जाएगा जब तुम्हारा पति भी
पिता बन जाएगा
मुझे सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है
पिता तुमने कैसे माँ के पिता को यही कष्ट पहुँचाया होगा
जिसे तुम खुद भुगत रहे हो
फिर तो माँ के पिता ने भी यही किया होगा
उनके पिता ने भी…
तब तुम्हें कहाँ इस बात का एहसास था
कि तुम भी इस दौर से गुजरोगे पिता
अपनी बेटी को उम्रभर इसी त्रासदी में जलते देख पाओगे ?
मुझे हर वक्त तुम पर गुस्सा नहीं आता पिता
पर जब आता है तो मैं घंटों सोचती हूँ
कि तुम आओ और समाज को ठेंगा दिखाकर कहो
‘मैं अपनी बेटी से प्यार करता हूँ
इसलिए इसकी खुशी ही मेरी खुशी है
इसे पूरा हक है
रिश्ता तोड़ने और बनाने का
इसे किसी से भी प्यार करने और अपनी मर्जी से जीने का पूरा हक है’
पर मुझे पता है पिता तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे
माँ मेरे पति के पिता होने का इंतजार करती रहेगी
और तुम
अपनी तरह उसके बेबस होने का
तुम दोनों के इंतजार में एक दिन बूढ़ी हो जाएगी यह बेटी
पर पिता को क्या फर्क पड़ता है
कि उसकी बेटी के कुछ बाल पक चले हैं
उसकी रातें सूखी हैं
और उसके तकिए गीले…
तुम पुरुष होकर क्या समझ पाओगे
मेरे मन और देह की पीड़ा
जब स्त्री होकर माँ नहीं समझ सकी अब तक
कैसे समझती
जिस दिन से वह तुमसे ब्याही गई है
तुम्हारा सोचना ही उसका सोचना है
तुम्हारा बोलना ही उसका बोलना
अपनी सोच और शब्द
उसने रख दिए हैं एक बक्से में
जिसकी चाबी मुझे नहीं पता
शायद तुम्हें भी नहीं
पता चलने पर भी तुम उसे कहाँ खोलोगे…
पर अफसोस मैं माँ जैसा नहीं कर पाई
और न कभी बन पाऊँगी
पिता अगर मुझे तुमसे नफरत है तो यह अकारण तो नहीं
कई कारण तो पेश कर दिए मैंने तुम्हें

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