बब्बुल की बहुरिया | नेहा नरूका
बब्बुल की बहुरिया | नेहा नरूका

बब्बुल की बहुरिया | नेहा नरूका

बब्बुल की बहुरिया | नेहा नरूका

बंद आँखें झुलसा चेहरा
रुक-रुक कर
रात गए जगाता है मुझे
नियति की जंजीर थामे
बेचैन हो बैठ जाता हूँ

सोचता हूँ…
तुम गाँव में
कैसी होगी ‘बब्बुल की बहुरिया’
खाती-पीती होगी या नहीं
दिन-रात खपती रहती होगी
खेत की मेड़ पर,
सुबकती होगी मेरा नाम लेकर
सोचता हूँ जरूर गाँव में
कोई बात हुई होगी
अम्मा ने ही न डाँट दिया हो कहीं
अबकी फागुन न पहुँच सका था
जरूर चटकी होगी
कलाई की कोई लाल चूड़ी

मुझे याद करके
मेरी तस्वीर से लिपट-लिपट
बहुरिया खूब फफकी होगी
गोरी-चिट्टी सत्रह साल की बहुरिया
गरीबी में दबी-दबी
गाँव में कितना झुलसी है
आह!
आज रात एक बार और
वह फिर झुलसी होगी
एक बार और
बड़बड़ाई होगी…

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