पीड़ा की भाषा
पीड़ा की भाषा

हर पीड़ा की अपनी भाषा
अपना एक चरित्र

मन के भीतर मौन साधकर
ही चुपचाप रही
और कभी मुखरित हो इसने
तन की व्यथा कही
इसमें तपकर तन-मन दोनों
होते रहे पवित्र

यह महसूस सिर्फ होती है
दिखती कभी नहीं
और स्वयं अपनी परिभाषा
लिखती कभी नहीं
रही संत-सी, इसका कोई
शत्रु न कोई मित्र

See also  तुम्हारी खोज में | भारती सिंह

बनकर बहरुपिया हर-पल ही
स्वाँग नया भरती
कभी हँसाती कभी रुलाती
क्या-क्या यह करती
पता नहीं गढ़ती है
कैसे-कैसे रूप-विचित्र

Leave a comment

Leave a Reply