हर पीड़ा की अपनी भाषा
अपना एक चरित्र

मन के भीतर मौन साधकर
ही चुपचाप रही
और कभी मुखरित हो इसने
तन की व्यथा कही
इसमें तपकर तन-मन दोनों
होते रहे पवित्र

यह महसूस सिर्फ होती है
दिखती कभी नहीं
और स्वयं अपनी परिभाषा
लिखती कभी नहीं
रही संत-सी, इसका कोई
शत्रु न कोई मित्र

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बनकर बहरुपिया हर-पल ही
स्वाँग नया भरती
कभी हँसाती कभी रुलाती
क्या-क्या यह करती
पता नहीं गढ़ती है
कैसे-कैसे रूप-विचित्र