पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर! | अशोक कुमार पाण्डेय
पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर! | अशोक कुमार पाण्डेय

पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर! | अशोक कुमार पाण्डेय

पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर! | अशोक कुमार पाण्डेय

तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ मैं
तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूँ
तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूँ तुम्हें
तुम होकर पढ़ना चाहता हूँ सारी किताबें
तुम्हें महसूसना चाहता हूँ तुम्हारी तरह

वर्षों पहले पढ़ा था कभी
मुझमें भी हो तुम जरा सा
उस जरा सा तुम को टटोलना चाहता हूँ अपने भीतर

बहुत दूर तक गया हूँ अक्सर इस तलाश में
जहाँ मुझे पैरों पर लिटा जाड़े की गुनगुनी धूप में
एक अधेड़ औरत गा रही है
जुग-जुग जियसु ललनवा
भवनवा के भाग जागल हो

और उसकी आँखों से टपक रहा है
किसी भवन का भाग्य न जगा पाने का दुख
उस दुख से अनजान एक दूसरी औरत
रुई के फाहे सी उड़ रही है उल्लास से
सखियों की ईर्ष्यालु चुहल से बेपरवाह
हर सवाल का एक ही जवाब है उसके पास
घी क लड्डू टेढ़ों भल
मैं देख रहा हूँ तुम्हें अपने भीतर
सहमकर सिमटते हुए
मैं तुम्हें दौड़कर थाम लेता हूँ
और निकल जाता हूँ
बौराए हुए आम के बगीचे तक
वहाँ मैली जनेऊ पहीने एक स्थूलकाय पुरुष
कुलदेवी की मूर्ति के सम्मुख नतमस्तक है
दान की प्रतीक्षा में उत्सुक विप्र बाँच रहे हैं कुंडली
हो रही है धरती से स्वर्ग तक सीढ़ियों की व्याख्या
पता ही नहीं चला इन सबके बीच
तुम कब भाग गई छुड़ाकर मेरा हाथ
और मैं अवाक देख रहा हूँ
अपने भीतर के मैं को लेता आकार

मैं फिर फिर लौटकर आता हूँ तुम्हारे पास
चुपचाप हो जाता हूँ तुम्हारे खेल में शामिल
छुपम छुपाई खेलता हूँ
एक टाँग पर दौड़ता हूँ … इख्खट-दुख्खट
कि तुम अचानक
अपनी फ्राक से निकालती हो गुड़िया
और सजाते हुए गुड्डे का सेहरा
खींच देती हो उसका घूँघट…

मैं ढूँढ़ता हूँ तुम्हें अपने भीतर
लेकिन वहाँ बिंदी है, चूड़ियाँ, पायल और सहमा सा घूँघट
मैं बात करना चाहता हूँ तुमसे
पर वहाँ चुप्पी है, शर्म है और अजनबियत हजार वर्ष पुरानी
और बाहर गा रहीं हैं औरतें कोरस मे
कैसन होईंहें बाबू क दुल्हिन
दूध जैसन उज्जर
पान जैसन पातर
फूल जैसन कोमल
अईसन होईंहे बाबू क दुल्हिन

मैं बेचैन हो भागता हूँ तुम्हारी तलाश में
पर बीच में एक पाठशाला है
जहाँ पिता दफ्तर जा रहे हैं
माँ खाना पका रही है
भैया खेल रहा है क्रिकेट
और मुन्नी पानी ला रही है!

इस लंबी यात्रा में जब-जब आना चाहता हूँ तुम्हारे करीब
हजारों हाथ आकर थाम लेते हैं मुझे
तुम बस सिमटती चली जाती हो
और मैं किसी जंगली घास की तरह
घेरता ही जाता हूँ सारी जमीन

लिखा तो अब भी है उस किताब में
पर पता नहीं कितनी बची हो अब तुम मेरे भीतर

कौन जाने जब तुम होकर करूँगा मैं तुमसे बात
तुम पहचान भी पाओगी अपनी आवाज
डरता हूँ कि जब छुऊँ तुम्हें तुम होकर
तो कहीं चौंक ही न जाओ तुम उस स्पर्श से

सुनो! तुम्हारे भीतर भी तो एक ‘मै’ था
तुम कहो ना कितना बचा है वह अब ?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *