पानी | महेश वर्मा
पानी | महेश वर्मा

पानी | महेश वर्मा

पानी | महेश वर्मा

अब वही काम तो ठीक से करता, वहाँ भी
पिछड़ ही गया वाक्य सफ़ेद कुर्ते में पान खाकर

तर्जनी से चूना चाटने की तरह कहा जाता
जहाँ उसी आसपास साइकिल अब कौन चढ़ता है
प्रश्न के उत्तर की तरह चलता हुआ ब्रेक इसलिए
नहीं लगा पा रहा था कि रुकते ही प्यास
लगेगी। बिना अपमान के सादा पानी छूँछे
पीकर निकल जाना मुश्किल होते जाने के शहर
में या तो मंत्री हो गए सहपाठी का किस्सा सुनाते
परचूनिए से उधार ले लूँ या पत्रकार बन जाऊँ के विकल्प
को छोड़ कर कविता लिखना तो ट्यूशन पढ़ाने से भी
कमज़ोर काम कि पीटने के लिए छात्र और दाँत
दिखाने के लिए विद्यार्थी की महिला रिश्तेदार भी
नहीं। धूप में साइकिल कहीं रोकने में पुराने पंक्चर
के खुलने का डर तो इस दोगलेपन का क्या
कि जो दरवाजा जीवन से कविता की ओर खुलता
वही दरवाजा कविता से जीवन में लौटने का नहीं।

इस वाक्य ने डरा ही दिया जिसकी चूने वाली मुद्रा
पहले ही बोल चुका जो यूँ सुनाई दिया कि कविता में
भी पिछड़ गया, कम से कम वही ठीक से लिखता।

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