नए दौर में | राम सेंगर
नए दौर में | राम सेंगर

नए दौर में | राम सेंगर

नए दौर में | राम सेंगर

उम्मीदों के फूल सँजोकर,
नजर गड़ाए हैं भविष्य पर
नए दौर में सब कुछ खोकर

रिश्ते-नाते ढोंग-धतूरे
हों जैसे बारिश के घूरे
सामाजिकता को ले चलते हैं
किसी तरह कंधों पर ढोकर

अपसंस्कारी हर मंडी है
लड़की यह बेबरबंडी है
लुभा रही ग्राहक के मन को
पतहीना नंगी हो-होकर

गीदी गाय गुलेंदा खाए
बेर-बेर महुआ-तर जाए
जज्बे को रोंदा चस्के ने
रख डाला विवेक को धोकर

काजी के मूसल में नाड़ा
पंडित मठ में नंगा ठाड़ा
धर्म हुआ कुत्तों की बोटी
विहँस रहा मन ही मन जोकर

भरे मूत का चुल्लू पस में
जबरा-मूढ़ लड़ें आपस में
भभका मार रही बरसों से
सड़े हुए पानी की पोखर

मरे लोकविश्वास अभागे
प्रगतिकाल के पंचक लागे
सोच शुभाशुभ की मिथ्या है
धुने बीज मिट्टी में बोकर

लंबा साँप गोह है चौड़ी
कहीं न दीखे हर की पौड़ी
जहाँ मिले राहत कुछ मन को
गमछा सिर पर रखें भिगोकर।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *