नववर्ष एक प्रतिक्रिया | प्रेमशंकर मिश्र
नववर्ष एक प्रतिक्रिया | प्रेमशंकर मिश्र
आदरणीय बंधुवर!
देखा आपने
इस बार भी
गया संवत्सर
जाते जाते
कुछ अमिट खरोचें छोड़ गया है।
सूरज वही घाम वही
पर ताप में
जैसे कुछ मिला दिया गया हो।
जलते सिवानों
और धधकते चौराहों पर
इस बार भी
काफी सतर्कता के बावजूद
फिर कुछ
मंजरियाँ और फुगनियाँ झुलसी हैं।
गनीमत मानिए
इस सर्वस्व स्वाहा से
किसी तरह
हट बच कर
नया वर्ष
नए वायदों, नई उम्मीदों
और नई पहल के साथ
नीम पलाश
और उस बूढ़े पीपल से
होता हुआ
इस बेचारे बेहया तक की नसों में
धीरे-धीरे उग रहा है।
नई गंध का नया विश्वास
फिर पनप रहा है।
मुट्ठी भर राख उड़ाने के एवज
हमें
जूझने मरने के लिए
फिर एक खूबसूरत खुशबू मिल रही है।
रंग बिरंगे
गुलाबी, गुड़हल, गुलदाऊदी
बेला, जूही, हरसिंगार
की छुवन का दाग
यह अकुलाया अबोध नन्हा बसंत
अपनी
अमित अनंत संभावनाओं के साथ
डगमगाती अँजुलियों में भर रहा है
अकेले
बोझ दुर्वह है मीत!
कृपया दामन में जगह दें
बसंत की रक्षा करें।
धन्यवाद।