नशीला चाँद | हरिनारायण व्यास
नशीला चाँद | हरिनारायण व्यास

नशीला चाँद | हरिनारायण व्यास

नशीला चाँद | हरिनारायण व्यास

नशीला चाँद आता है।
नयापन रूप पाता है।
सवेरे को छिपाती रात अंचल में,
झलकती ज्‍योति निशि के नैन के जल में
मगर फिर भी उजेला छिप ना पाता है –
बिखर कर फैल जाता है।
तुम्‍हारे साथ हम भी लूट लें ये रूप के गजरे
किरण के फूल से गूँथे यहाँ पर आज जो बिखरे।
इन्‍हीं में आज धरती का सरल मन खिलखिलाता है।
छिपे क्‍यों हो इधर आओ।
भला क्‍या बात छिपने की?
नहीं फिर मिल सकेगी यह
नशीली रात मिलने की।
सुनो कोई हमारी बात को गर सुनाता है।
मिला कर गीत की कड़ियाँ हमारे मन मिलाता है।
नशीला चाँद आता है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *