नहीं जानते कैसे | दिविक रमेश
नहीं जानते कैसे | दिविक रमेश

नहीं जानते कैसे | दिविक रमेश

नहीं जानते कैसे | दिविक रमेश

नहीं जानते कैसे
पर आ जाता है तराशना
समय के साथ-साथ
होकर शिल्पकार।

दूर-दूर तक नहीं दिखतीं जहां संभावनाएं
उन्हीं शिलाओं में
कर लिया करते हैं अंकुरित हजारों हजार मूर्तियां जीवन्त।

नहीं जानते कला है या तकाज़ा समय का
चाहें तो उभार लिया करते हैं
पथराए रिश्तों तक से
मनचाही आत्मीय गतिशीलताएं।
निकाल लिया करते हैं जैसे
सैंकड़ों मीठी नदियां
मथकर समुन्द्रों का खारापन।

अब तो खुल गया न रहस्य पूरा।
रहो शिला या पत्थर
वह दायरा तुम्हारा है
मुझे तो तराशना है
मानों बुरा या भला।

अब तक जो कहा सिद्धांत कहो
व्यवहार में तो
किसी का बाप तक नहीं कर सका ऐसा
खासकर हम जैसों का।
जो खुद ही बना दी गई हो वस्तु
तराशने की
क्या तराशेगा वह
उगा कर भी क्या उगा लेगा वह?
देकर भी क्या दे देगा वह?
डाला जाता रहेगा वह एक पिट्ठू या पिटी हुई वोट की तरह।
और निकलने वाले निकलते रहेंगे
राजा-महाराजाओं की तरह।
सच कहा तो सुलगने क्यों लगी भाई! मतलब भाई साहब!

देखा, बात अब गद्य हो चली है।
लौटता हूं कविता पर।
तो कह रहा था
सुनना जी ज़रा लगाकर ध्यान-
ज़रा गाना सामूहिक गान-
देता हूं टेक–
रहो शिला या पत्थर
वह दायरा तुम्हारा है
हमें तो तराशना है
मानो बुरा या भला।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *