नागपुर शहर | बसंत त्रिपाठी
नागपुर शहर | बसंत त्रिपाठी

नागपुर शहर | बसंत त्रिपाठी

नागपुर शहर | बसंत त्रिपाठी

1 .

विद्युत चुंबकीय तरंगों के अदृश्य घेरे के भीतर
उखड़ी हुई साँसों के साथ
लंबी गुलाबी जीभ निकालकर
हाँकता हुआ हफ-हफ… हफ-हफ…
यह मेरा शहर

चमकदार रोशनी की गिरफ्त में बदहवास
अपनी ही गति से भ्रमित
मानो एक अवांछित मौत को
अपनी ही देह में पसरने देता हुआ
प्राण की अंतिम बूँद
निचुड़ते देखता हुआ भयभीत
यह मेरा शहर

मैं दिन से दिन तक
रोशनी से रोशनी तक
अँधेरे से घने अँधेरे तक
इसे देखता हूँ,
शहर की नब्ज को दर्ज कर लेने को आतुर
अभिलेखागार के संकलनकर्ता की तरह
घूमता हूँ इसकी सड़कों पर,
यह खुलता चला जाता है,
किसी रहस्यमय किताब की तरह
पन्ने-पन्ने खुलता ही चला जाता है
जैसे रंगमंच पर कोई विराट जादुई खेल :

एक विस्तृत परिधि में
भव्यता और उजाड़ के मिले-जुले रंगों से निर्मित
पचीस लाख से भी अधिक आबादी को
जीने और मरने
आने और जाने
ठहरने और भागने की बराबर आजादी देता हुआ
यह मेरा शहर

शहर के बीचों-बीच गूमड़ की तरह
उभरी हुई एक पहाड़ी
पहाड़ी पर एक फौजी किला
लंबे और घने पेड़ों से ढँका
सामान्य नागरिकों के लिए दुर्भेद्य
एक ओर इसके रिजर्व बैंक – अर्थतंत्र का पहरेदार
एक ओर चमकदार बाजार – चेतना का खरीददार
एक ओर मंदिर – धार्मिक कीर्तनों का महाशोर
मुख्य द्वार के ठीक सामने एक बड़ा मैदान –
संस्कृति की निरंतरता में
सेंध लगाता हुआ एक उत्सवी चोर,
देश के हर कोनों को छूती हुई रेल पाँतों को
दम भर सुस्ताने का आग्रह-सा करता हुआ
मुख्य स्टेशन भी एक ओर,

यह शहर,
साफ सुथरा शहर,
धीमी राजनीति धीमी अस्मिता
तेज सपनों
भागती कीमतों
और बेखौफ सेंधमारी करते लोगों का शहर,
फैलता गया है
जहरीली गैस के रिसाव की तरह
फैलता ही जा रहा है यह शहर

इसकी आँतों में सीमांत जिंदगियाँ कसमसाती
आसमान से चुंबकीय तरंग
अदृश्य बम की तरह गिरते
अंदर ही अंदर एक घाव पकता
और मवाद सड़क पर बिखरता ही
कि तुरंत पोंछ दिया जाता

यहाँ शांति है और बेचैनी भी
सुरक्षा है और भय भी
कार्गो हब है और चौराहों पर
दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ भी
ईश्वराभिमान है इसलिए जाति भी
और शराबखानों में डोलती हुई परछाइयाँ भी
(हाँ परछाइयाँ ही,
चेहरा खुरचकर विकास की नदी में
बहा दिए गए लोगों की परछाइयाँ।)

2 .

सड़क शिराएँ हैं शहर की
और मैं खून की तरह
बेआवाज उसमें घूमता हुआ
चौराहे की लालबत्ती पर रुकता हूँ
कि एक बच्चा
मेरे जूते पर अपना माथा रख देता है

बदरंग छोटी निक्कर पहने
बमुश्किल पाँच-छ साल का वह बच्चा
पूरा बदन उघड़ा हुआ
काली देह पर धूल की मोटी-गाढ़ी परत
रूखे बेजान भूरे छितरे बाल
आँखें बादलों के परदे से
बेतरह झाँकने की कोशिश करता हुआ सूरज
पैरों में झरने की गति
और आवाज कि कसाईखाने की ओर
खींचकर ले जाता हुआ कोई मेमना

मेरे जूते पर उसके माथे की धूल चिपक गई है
जो सड़ाक् से, चाबुक की तरह
कलेजे को लगती है,
चौबीस सेकेंड के उस ठहरे ट्रेफिक में
गति को उद्धत घरघराते वाहनों के बीच
दौड़ता भागता
वह चार सेकेंड से ज्यादा
नहीं ठहरता किसी के पास
फिर किनारे हो जाता एक ओर

दूर दराज के बंजारे
रंग बिरंगे मैले कपड़ों में
खिलौने चश्मे वाहन पोंछने के मखमली कपड़े
दौड़ दौड़कर बेचने की कोशिश करते हुए
औरतों की गोद में कभी कभार एक नंग-धड़ंग बच्चा भी

महीने दो महीने बाद वे फिर नहीं दिखाई पड़ते
वे कहाँ से आते
फिर कहाँ को चले जाते
कैसे उनकी रात गुजरती कुछ खबर नहीं

चाबुक ही पड़ती है कलेजे पर कि
चौराहे चौबीस सेकेंड की भीख
और चौबीस सेकेंड की खरीददारी से पट रहे हैं
और किसी का दिल काँच की तरह नहीं टूटता

हथगोलों की तरह फूटती खबरों से
सत्ता का बलगम जमा करते सीनों में
अय्याशियाँ उभरती हैं
रेडियो स्टेशन बीमार आवाजों से ऊबकर
अचानक धूम धड़ाम हो जाते हैं
मनोरंजन… मनोरंजन…
चीखता है हमारे समय का सुसंस्कृत शहरी
देशपांडे सभागृह की दर्शक-दीर्घा में बैठ
सुनता है कर्णप्रिय जुगलबंदी
उस्तादों का जादू,
देखता है कई-कई नाटक
विद्रोह की भव्य कलात्मक प्रस्तुतियाँ
खड़े होकर देर तक ताली बजाता
वाह… वाह… कितना सम्मान है कला के वास्ते
उसके विराट मध्यवर्गीय हृदय में!
यह दीगर बात है
कि शहर के कुछ इलाकों में
आज तीसरे दिन भी पानी नहीं आया।

3 .

मैं सड़क बदलता हूँ|
कि नस बदलता हूँ
(खून हूँ मैं सड़क में बेआवाज टहलता हुआ)

और अब एक चमकदार बाजार
एक नहीं
कई-कई बाजारों का झुंड
बर्डी, सदर, धरमपेठ, रामदासपेठ,
सक्करदरा, कमाल चौक,
महल, इतवारी, जरीपटका
चारों ओर घनघनाते, बजबजाते, बिलबिलाते
कई-कई बाजार

शहर की आधी बिजली को
इत्मीनान से खाते हुए
शासन की आर्थिक सैन्य चौकियों की तरह
विज्ञापित वस्तुओं के अचूक पूर्तिकर्ता
हमारी दैनिक सहजता के खिलाफ मुस्तैद

सब कुछ बेच देने की उद्धत क्रियाशीलता
सब कुछ खरीद लेने की आक्रामक चाहतें
शालीन दुकानदारों और विनम्र ग्राहकों का
अनियंत्रित महाशोर

सामान इतना कि दुकानों तक में अँट न पाए
सड़क तक को करीने से घेरे हुए
कि राह चलते लोगों को ही दबोच लें
बना दे उन्हें केवल खरीददार

मॉल और मल्टीप्लॅक्स की खतरनाक घेरेबंदी
उधर सीमा पार से भी
आगमन को आतुर
अनियंत्रित व्यापारियों की खतरनाक रणनीति
और शासन उन्हें सुविधाओं के साथ न्योतता हुआ
‘अतिथि देवो भव’ नहीं
‘अतिथि सर्वस्व भव’ का यह रूप नया

बिक सको तो बिको –
मेरे देश के बीजो,
सब्जियो, फलो, कपड़ो,
किसानों, सार्वजनिक कंपनियो,
ईमान, करम, खून,
गुर्दा, किडनी, आँख
तुम सब बिक जाओ कि तुम्हें खरीदने वाला
आ चुका है

सब कुछ बेचो
और बदले में खरीद लो सिमकार्ड, मोबाइल हैंडसेट,
शीतल पेय, जूते, घड़ियाँ,
मोटर बाईक, कार, घर, प्लाट,
पिज्जा, नूडल्स, आइसक्रीम,
और एक अचूक धनरक्षक यंत्र

विकास की दस प्रतिशत दर का सम्मान करो देशवासियो,
आर्थिक महाशक्ति बनने की राह
सुनिश्चित करो शहरी इंडियनो,
यह केवल बाजार से ही संभव है

मैं हैरान परेशान
रोशनी से चुँधियाई आँखों के साथ
खड़ा बीच बाजार
जरूरत की सब चीजें हैं मेरे पास
पर खरीदने की चाहत का न होना
सत्ता विरोधी विचार है
देशद्रोह है,
इसलिए खुद को जीवित रखने के लिए
खरीदना होगा कुछ न कुछ
कुछ ऐसा कि उसकी जरूरत बिल्कुल न हो
मैं सोचता हूँ देर तक
कि क्या बचा है मेरे पास
जिसे देकर खरीदूँ कुछ मैं

जेब में एक नोट पड़ा है
और उसमें छपे गांधीजी मुस्कुरा नहीं रहे हैं
मानो उनके ही अश्रुपात से
सील गया है नोट

मैं कुछ भी खरीदने के लिए
नोट निकालूँगा कि पकड़ लेगा दुकानदार
पुलिस स्टेशन से दनदनाती हुई गाड़ी आएगी
और मैं गिरफ्तार कर लिया जाऊँगा
रिजर्व बैंक का अधिकारी
शरारतपूर्ण अंदाज में मुस्कुराएगा –
‘अच्छी कल्पना है मिस्टर
नोट में रोते हुए गाँधीजी!’
फिर मेरे पुट्ठे पर जमाएगा जोरदार लात
मुझे घसीटकर उल्टा लटका देगा
उसी पेड़ पर जहाँ
अठारह सौ सत्तावन के बागी लटकाए गए थे

मैं मिमियाता रह जाऊँगा कि
बैंक अधिकारियों का अधिकार नहीं है यह
दुकानदार की गवाही मानवाधिकार का हनन है
मुझे कोर्ट सजा दे
पुलिस कोर्ट से अनुमति लेकर यातना दे
लेकिन बैंक अधिकारी नहीं

        (हाय, हाय, कितना मासूम ही रहा आया अब तक!
        यह कैसे भूल गया कि
        न्याय घर, रिजर्व बैंक, सेना, पुलिस,
        संसद, विधानसभा, जिलाधीश,
        सब एक ही व्यवस्था के कलपुर्जे
        बंधक लोकतंत्र के उदारवादी मुखौटे,

        मैं बाजार से गुजरा ही क्यों
        जब खरीददार नहीं होना था!)

ठंड है लेकिन पसीना पसीना हूँ
जेब का नोट थोड़ा और भीग गया है
मैं डरते डरते उसे देखता हूँ
पीले चमकते बल्ब में गांधीजी नहीं हैं अब
व्हाइट हाउस चमक रहा है
यह कैसी अनहोनी है
कि मैं कुछ भी खरीदता हूँ
तो बस अमरीका से ही खरीदता हूँ !

अजीब यह घटना है
जैसे मस्तिष्क ही पिघलकर
तश्तरी में उतर रहा है
जिसे सूप वाले बड़े चम्मच से सुड़क रहा है
मेरा ही रक्षक

जाग रहा हूँ या सपने में हूँ
या शायद नींद ही में चल रहा अनवरत्नीं
द में ही बाजार, रोशनी
और सपने में खरीददारी

अचानक रात का शहर
घुप्प अँधेरे में डूब गया

‘बुलाओ… चाँद को बुलाओ’
‘कोराड़ी बिजली केंद्र के अफसर को बुलाओ’
‘गल्ले का मुँह बंद करो’
‘मुख्यमंत्री को फोन घुमाओ’

लोग जब अल्लम-गल्लम चीख रहे थे
इनवर्टर का उत्पादक
किसी भव्य पुरुष की तरह प्रकट हुआ
सिर से पाँव तक रोशन
सूरज जैसे उसकी जेब में ही पड़ा हो
और बिजलियाँ दासी!

कहता है शान से –
‘हमारा उत्पाद खरीदो,
आपात् अँधेरे को अबाध रोशन करो,
रोशनी किसी की चाकर नहीं,
हम थोड़े से पैसे में
आपके हिस्से का सूर्य देने आए हैं,
आपके हिस्से की बिजली
सिर्फ थोड़े से पैसे में,
किश्तों और कर्ज की सुविधा भी है हमारे पास’

इस प्रभावपूर्ण भाषण की रपट
हूबहू छपेगी कल के अखबार में
जुट आए हैं पत्रकार, संपादक, स्तंभ-लेखक
उन्हें विशेष तौर पर बुलाया गया है
मुख्यमंत्री और ऊर्जा मंत्री के खेदयुक्त बयान
और विवशता टपकाती चेहरे की तस्वीरें
आ चुकी हैं मुंबई से

इस महान नाटक में
बिकेंगे लाखों इनवर्टर
कोराड़ी बिजलीघर का प्रभारी
पुरस्कृत होगा मुंबई में
‘सेवा का सर्वोच्च पुरस्कार’
यहाँ तक कि चाँद के लिए भी
विधानसभा के शीतकालीन सत्र में
धन्यवाद प्रस्ताव पारित होगा,
मजमून बनाने में जुट गए हैं
सरकारी सलाहकार, सचिव और सहायक

इस महानाटक का पटाक्षेप
जरूर किसी धमाके से होगा

मैं धमाके की प्रतीक्षा करता हुआ
धीमी चाल से
आगे बढ़ जाता हूँ।

4 .

बाजार बुझ चुका है
खरीददार अपने-अपने घर
पहुँच चुके हैं सुरक्षित
उन्हें सुरक्षित पहुँचाकर
यातायात पुलिस निश्चिंत है, श्लथ है,
सड़कों के सिगनल बंद कर दिए गए हैं,
केवल कुछ रिक्शे हैं आस-पास
शायद कोई भटकती हुई सवारी मिल जाए कहीं!

पॉलीथिन, पुराने अखबार, कागज की प्लेटें
प्लास्टिक के कप-गिलास-स्ट्रा
सबकुछ सड़क पर फेंक दिए गए हैं
अगले दिन बुहारे जाने के लिए,
कुछ बूढ़े सेल्समेन
अपनी थकी देह को साइकिल पर लादे
चले जा रहे धीरे-धीरे अपने घर

जहाँ दुकानों के ऊपर मालिक खुद रहते हैं
या किरायेदार
खेल रहे हैं बाजार की गलियों-सड़कों पर उनके बच्चे
बेडमिंटन या क्रिकेट

व्यापार की समस्त व्यस्तताएँ
कल तक के लिए स्थगित
अब यहाँ सचमुच के कुछ मनुष्य पड़ रहे दिखाई
मैं उनके बीच से होता हुआ
गुजरता हूँ
घूमता हूँ बाजार दर बाजार

धीरे-धीरे सारी आवाजें चुप होती जाती

यह रात का सोता हुआ शहर है
और मैं
आधी से अधिक बीत चुकी रात की सड़कों से
किसी भटके हुए लावारिस की तरह
गुजर रहा हूँ

दूर किसी शहर से
उनींदे यात्रियों को ढोकर आती हुई बस
शहर की नींद में दाखिल हुई,
रेल की सीटी
शहर के सन्नाटे को चीरती हुई
बहुत दूर जाकर कहीं खो गई,
पुलों-उड़ानपुलों के नीचे कुनमुनाते कुछ लोग
अपना ही शरीर ओढ़कर फिर सो गए

शहर की पूरी अधूरी उचटती नींद में
किसी बेचैन सपने की तरह
मैं घूमता रहा
और यह रात
पाँवों ही पाँवों में कटती गई

मेरे साथ बीड़ी का कश खींचती
एक काया
परछाईं की तरह चलती रही
कभी थोड़ा आगे, कभी बहुत-बहुत पीछे
लंबोतर चेहरा उन्नत ललाट
धँसे गाल
लपट फेंकती हुई आँखें
लाल-लाल
भीतर अग्नि धधक रही हो जैसे

फिर परछाइयों का एक अंतहीन सिलसिला
एक घुटनों तक धोती पहने,
एक के कोट में गुलाब,
एक तिरछा हैट पहने,
एक सूट-बूट और बगल में मोटी किताब दबाए
एक औघड़ कवि भी, पागलपन में गीत गाता हुआ,
कभी मधुर स्वर, मेघ-मंद्र-रव
और कभी अचानक जैसे बादल ही फट गया हो
उघड़ा हुआ भीमकाय शरीर
लस्त पस्त कदम

परछाइयाँ घेरकर खड़ी हो जाती हैं मुझे
और समवेत स्वर में चीखती हैं –
‘हम मूर्तियों के कब्रिस्तान में
बेआवाज टहलते रहते हैं,
कहाँ हैं हमारे पैरों के निशान?
इस शहर में हमारी मुक्ति का मार्ग कौन-सा है??’

‘मुक्ति…?’
अँधेरी रातों में ढह चुकी चिमनियाँ हँसती हैं
‘मुक्ति का रास्ता
शहरों से होकर नहीं गुजरता अब

‘यह शहर दरअसल
विकास का इश्तेहार है
यहाँ कैदखानों के सौंदर्यीकरण की नई चाहते हैं
मूर्तियों की उपेक्षित परछाइयो!
ओ बीसवीं शताब्दी के स्थगित विचार!!
क्या तुम अपने अधिकार
बाइज्जत सौंप नहीं सकते हत्यारों को?
क्या इसके अलावा
कोई दूसरा विकल्प है तुम्हारे पास?’

अजीब है, अजीब है,
गुर्राता है शहर के बाहर से
मेरा ही प्रतिरूप
और इससे पहले कि कुछ ठोस घटे
मैं सींखचों के पीछे कैद

उदार चेहरा और क्रूर मंसूबा लिए
घेर लिया है मुझे
अधिकारियों के एक विशाल दल ने
वे सूँघ रहे मस्तिष्क की खोहों में
खौलते विचारों की भाप

एक जो नायक उनका
कहता है तनिक मुस्कुराते हुए –
     ‘ हाँ… इस ओर हमारी ओर
      चले आओ बेखौफ
      यहाँ जिंदगी की मस्ती है,
      उस ओर जहाँ तुम रहे आए
      जिंदगी बहुत-बहुत सस्ती है,

      ‘और देखो तुम दिखते भी नहीं हो वैसे
      न खाना वैसा न पहनना
      जूतों में कीचड़ तक नहीं
      वेतन तुम्हारा उम्दा
      माह के अंत तक खरच भी नहीं पाते पूरा
      कहाँ वहाँ अड़े हो खड़े हो
      कहाँ दुनिया के पचड़े में पड़े हो
      चले आओ यहाँ इस ओर

‘यहीं रहकर मजे से लिखो
कहानी कविता लेख – क्रांतिकारी
जार जार चाहे तो रो लो
या सपने ही देखो जन्नत के
नींद की गोली और नरम बिछौने का
बेहतर इंतजाम है हमारे पास

‘यहाँ जिंदगी की मस्ती है
जहाँ तुम रहे आए
जिंदगी बहुत-बहुत सस्ती है
और हाँ मौत भी

‘तुम एक मामूली कवि हो,
नामालूम कवि,
तुम्हारा पड़ोसी भी तुम्हें नहीं पढ़ता’

मेरी खामोशी और बेचारगी पर वह नायकनुमा आदमी
अट्टहास करता है
जैसे किसी देश पर अचानक दाग दी गई हो मिसाइल

     ‘तुम केवल इसलिए रिहा किए जा रहे हो
     कि कवि हो’
     (लेकिन उसकी मक्कार आँखें जैसे कह रही थी –
     ‘बकरियों की तलवारबाजी के अभ्यास से
     भेड़िये नहीं डरा करते’)

अपनी पीठ, चेहरे, घुटने और छाती पर
अट्टहासों और डंडों के निशान लिए
अब मैं फिर सड़क पर हूँ
एक नए दिन के नए अँधेरे के ठीक सामने

लोग हस्बेमामूल कतार में खड़े हैं
बिजली बिल की कतार
पानी के बिल की कतार
राशन और सिनेमा की कतार
संपत्तिकर, आयकर और महानगरपालिका की कतार
अस्पताल बैंक ब्लडबैंक की कतार
मुरदाघर और श्मशानघाट की कतार
कतार… कतार…
इतनी लंबी कि दूसरा सिरा
अंतरिक्ष को ही छूता हुआ
लोग एक कतार से निकलकर
दूसरी में खड़े हो जाते हैं
फिर तीसरी फिर चौथी
पाँचवीं… आठवीं… बारहवीं…

मैं खुद एक कतार में हूँ
विचाराधीन कैदियों की कतार में
और ढूँढ़ रहा हूँ शुक्रवारी तालाब की कीच के नीचे छिपी
शहर की अतृप्त इच्छाएँ,
नाग नदी के हाइड्रोजन सल्फेट के उबलते गंध में
तैरती अकर्मण्यता,
इच्छाओं के घोड़ों पर सवार
सपनों की ढीली लगाम थामें
उड़ने को आतुर युवाओं की भटकी हुई राह,
शहर को नई तरह से सजाने की योजनाओं के षड्यंत्र की फाईल,
उखाड़ दिए गए पेड़ों के पत्ते,
चिड़ियों के अपरिपक्व अंडे,
खो चुके खेल के मैदान,
एंप्रेस मिल का पता,

शहर की स्मृति से सबकुछ पोंछा जा रहा है
एक स्मृतिविहीन शहर की सड़कों पर
मैं टहल रहा हूँ बेआवाज
(मैं खून हूँ नसों में चहलकदमी करता हुआ)

5 .

ओह हो… अच्छा…
तो यही है संघ मुख्यालय,
संस्कृति की राजनीतिक प्रयोगशाला!
कहाँ है इसका मुखिया
बुलाओ उसे कटघरे में खड़ा करो
बयान दो परमपूज्य गुरुजी
कि इस देश में धार्मिक उन्माद फैलाने की
कौन-सी नई प्रविधियाँ विकसित करने में लगे हो इन दिनों?

‘साले, दो कौड़ी के कवि,
तुम्हारी ये मजाल
कि नए बन रहे इतिहास को ही चुनौती!’
कॉस्मोपॉलिटिन सभ्यता के ऐतिहासिक कूड़ाघर से
अंधे चमगादड़
तीर की तरह टूटते हैं मुझ पर,
और इससे पहले कि
मध्यकालीन इतिहास की विकृत परिभाषाओं से लैस
आधुनिक तैयारियों का गुस्सा मुझ पर टूटे
मैं नसों में फिर दौड़ता हूँ
भागता हूँ जान बचाकर

आड़ी तिरछी गलियाँ
खौफनाक अंधे मोड़
आगे रुकने का निर्देश देती लाल बत्ती
पुलिस की लंबी सीटी

मैं भागता हूँ
सिर पर पाँव रखकर भागता हूँ
इन पत्थरों की तरह के चेहरों के बीच से
दौड़ते पहाड़ी झरने-सा भागता हूँ
हाँकता हूँ दम लेता हूँ ठहरकर सुस्ताता हूँ
फिर भागता हूँ

मुझे पानी चाहिए
एक कट चाय दो बिस्किट
और एक दिलासा देता हुआ चेहरा
कंधे पर एक गर्म हाथ
या शराबखाने की बेझिझक चीयर्स
धूप में तपी हुई लकड़ी की बेंच पर
बैठता हूँ धप्प से
कि जैसे गोश्त की गठरी हूँ

अखबार में बाबाओं की मुस्कुराती हुई तस्वीरें हैं
प्रकट उत्सव, उर्स, दिंडी यात्रा
कई सड़कों के बंद की सूचना
पुलिस की भारी गश्त

शहर में धार्मिक शोर
शहर के बाहर पूँजीपतियों का क्रिकेट उपक्रम
पगलाई बौखलाई जनता

सबकुछ आज ही घटित होना है

इन खबरों के बीच कहीं
टैंकरों से जलापूर्ति की खबरें
और यह सूचना भी कि
‘इंदौरा, रामेश्वरी, हसन बाग और दिघोरी में
अगले दो दिन भी पानी नहीं’

सड़क किनारे टप्परनुमा
‘जय हनुमान टी स्टॉल’ का तिलकधारी
हँसता है फिक्क से –
‘इन्हें पानी की जरूरत ही क्या है
न नहाना न धोना’
फिर बाल्टी उठाए वह हैंडपंप की ओर चला जाता है

उसने कैसे चुन लिया मुझे
इस वाक्य को कहने के लिए?
मैं परेशान हूँ कि पहली ही बार तो यहाँ आया हूँ
और वह भी
अंधे चमगादड़ों से बचता बचाता
शायद बाबाओं की तस्वीरें निहारते
मुझे देख लिया हो
या मेरे ही चेहरे में कुछ अप्रत्याशित हो
मेरी जानकारी के बगैर

अपने प्रश्नों की आग से
झुलस ही रहा था कि
धार्मिक जुलूस बैंडबाजे के साथ
मेरे पास से गुजरा
बाबा ताजुद्दीन का चमकदार संदल
घोड़ों का लंबा काफिला
बैंड की आवाज कि दिल ही उछल-उछल आता है मुँह को
धरती ही काँप ही रही हो मानो

ट्रेफिक पुलिस दल भाग रहा है
दौड़ रहा है
मशीन की तरह जुटी है पुलिस
रोबोट की तरह

जगह जगह शरबत महाप्रसाद
भूखे टूट पड़े हैं
भिखारी खदेड़े जाकर भी अड़े हैं
वे हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं
बड़े बड़े देगों में पकता खुशबूदार अन्न
मीठी खुशबू हवा में फैलती हुई
आँच है तेज
और उससे भी ज्यादा तेज है भिखारियों की आँखों की चमक

चलो यह भी ठीक है
धार्मिक जलसों से आज की रात तो
राहत से कटेगी
दिन महाप्रसाद में तो रात जर्दा में

मेरे समय का चिंतक इसे
धार्मिक सद्भाव का अद्भुत उदाहरण कहता है
मैं इसे धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शन से बिंधे
चमकदार भक्तों और भूखे लोगों का उत्सव कहता हूँ,

पूरा शहर ही
धर्म के आक्रामक उत्सवों की जकड़बंदी में मदमस्त
हिंदू, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान
सभी निकल आए हैं
अपने एकांतिक पूजागृहों से
परचम लहराते हुए

यह क्या है कैसा तो है यह दृश्य
एक शहर के भीतर पिसते हाँकते बमकते
डाँटते छींकते काँखते
कई-कई शहर

प्रसन्न और संतुष्ट लोग
उदास और बीमार लोग
हारी बीमारी से मरते स्थगित होते लोग
लोग लोग लोग
स्मृति और विस्मृति
भूख और इच्छाएँ
देह और पवित्रता
नींद और सपनों के बीच घूमते
टहलते

असंख्य असंख्य लोग

उनके ही बीच कहीं अदृश्य
हँसता मुस्कुराता विकास की पश्चिमी आकांक्षाओं का

संभ्रांत एजेंट

सारी चीजों को प्रबंधन के नियमों से
समायोजित करता हुआ
उदारता का मुखौटा पहना हुआ एक क्रूर चेहरा
वह भूख को काहिली सिद्ध कर देता है
आत्महत्या को भाग्य
वह संपन्नता को परिश्रम कहता है
ईश्वर को नई सदी का विचार
वह धर्म में नैतिकता के तमाम तर्क ढूँढ़ निकालता है
और अंग्रेजी को अक्सर
ज्ञान का पूरक कहता है

मैं जानता हूँ उसकी तमाम चालाकियाँ
लेकिन फिर भी कितना कम जानता हूँ उसे
फिलहाल तो हर बार से भी थोड़ा कम

मैं अपने हर बार के कम जानने से
ज्यादा जान लेने की जोर आजमाइश करता हुआ
फिर सड़क पर हूँ
(कि खून ही तो हूँ नसों में टहलता हुआ)

6 .

दिन बीत चुके कई
और घूमना पूर्ववत् जारी

दिन को रात रात को दिन करता हुआ
मैं दर्ज कर रहा हूँ शहर की गति
कितना कुछ चुपचाप घटता जा रहा है शहर में

श्रम के वे तमाम चिह्न
जिनसे पहचाना जाता था यह शहर
मिटाया जा रहा या मिटाया जा चुका
या फिर उन्हें सुनियोजित तरीके से महत्वहीन बनाया जा रहा
एंप्रेस मिल की जगह रिहाइशी मकान
और चुँधियाता शॉपिंग मॉल
सूत गिरनी अब केवल इतिहास की किताबों में ही
एक बस चिमनी मॉडल मिल की
आकाश के निचाट सूने तक उठी हुई,
परदों के पीछे
गहरी यंत्रणा चल रही उसे भी गिराने की

टॅक्नीशियन बुलाए जा रहे
तारीखें तय की जा रही
जमीन तो कब की बिक चुकी
कर्मचारी खदेड़े जा चुके कब के
और विस्फोट के लिए बारूद भी मँगाया जा चुका

विशाल डैनों वाले नरभक्षी पक्षियों की तरह
जुट आए हैं सरकारी तंत्र के ऊँचे ओहदेदार पहरुए
मौत की सजा का फरमान है उनके हाथों में,
साथ में फटी बनियान के ऊपर
वर्दी डाले हुए निरीह सिपाही,
उन सबकी चमकती हुई आँखों में
खून पी जाने की ललक

मैं एक दुःस्वप्न की तरह देखता हूँ
चिमनी का गिरना,
जैसे साफ कर दिया गया हो एक जंगल अचानक
सुखा दी गई हो कोई नदी जैसे
या बादलों का कर लिया गया हो अपहरण
या भरी पूरी बस्ती पर चला दिया गया हो बुल्डोजर
या बच्चों के सिर कुचल दिए गए हों एक बड़े पत्थर से
गिरती है चिमनी वैसे ही

धूल बारूद का धुआँ और एक खाली आसमान
कुछ बेचैन फुसफुसाहटें
मक्कार हँसी
सबकुछ हड़प लेने की अंतहीन इच्छाएँ
और अपनों में बाँटने की रणनीति
क्या इतना ही बचा रह जाएगा
इस नए तरीके से नियोजित शहर में?

शहर की खाली जमीनों पर
नए गिद्धों की पैनी नजर
खाली की जा सकने वाली जमीनों पर
उनके अदृश्य खूनी पंजों का शिकंजा
कसता ही जा रहा लगातार

मैं देखता हूँ शिकंजों से उदासीन
मासूम बिलबिलाते इलाके
जैसे यह चिंदी बाजार :
रेल पटरियों के किनारे की दुर्गंध के साए में पसरा हुआ,
ऊबकर रद्द किए गए
या सस्ते बर्तनों के ऐवज में हासिल कपड़े
फिर किसी देह की गर्मी छूने के लिए
यहाँ ढेर के ढेर पड़े हैं

यह पुराने सामानों का शनिचरी बा़जार :
सब पुराने यहाँ किसी के लिए
फिर नए में बदल जाएँगे
और यह गंगा-जमुना
अपनी छीजती देह को सजा सँवार कर
गलियों चौराहों के मुहानों पर खड़ी
जवान अधेड़ किशोरियाँ

चमकते शहर के लिए
चोरों और अपराधियों के अड्डों से
अधिक की हैसियत नहीं रखते ये इलाके

मैं देखता हूँ उड़े हुए रंगों के कपड़े पहने
ग्राहकों की उदास आँखें
जैसे डूबते हुए लोगों की घुटी हुई आखिरी चीख
वे रहते हैं वहाँ
जहाँ सबसे ज्यादा पानी जमता है बारिश में
सड़कें जहाँ सबसे ज्यादा बीमार
अव्वल तो ठीक-ठीक वे सड़कें भी नहीं

वे सड़क बनाते हैं, ईंट ढोते हैं,
मिठाइयाँ और नमकीन बनाते हैं,
कचरा बीनते हैं, गालियाँ सुनते हैं,
फिर चुपचाप लौट जाते हैं
अपने-अपने हिस्सों के सामुदायिक अँधेरों में

अपनी जमीन से बेदखल
या बेदखल कर दिए जाने की संभवनाओं से भयभीत बाशिंदे वे
शरणार्थी की तरह रहते हैं
उत्सवों में लोकगीतों या फिल्मी गीतों पर
कभी कभार थिरक लेते हैं
और अंततः एक नामालूम मौत में डूब जाते हैं
 

7 .

मैं अँधेरे को देखता हूँ
जो सबसे ज्यादा चमकदार है इन दिनों
मैं पुकारता हूँ इस शहर के
तीन सौ वर्षों के पूर्वजों को
जिनकी कब्रें हैं यहाँ
हड्डियों का फास्फोरस दबा है यहीं कहीं
या हवा में ही घुला हुआ
नदियों में सिराई गई जिनकी अस्थियाँ
लेकिन मेरी पुकार
अँधेरे में ही खो जाती

हारकर चौराहों पर स्थापित ठोस पत्थर मूर्तियों से ही
सवाल पूछता हूँ कि
यह शहर है
या उजाड़ की ओर तीव्रतम गति से भागती
किसी अंधी सभ्यता की अंतिम दौड़?

यह शहर है
या फाँसी का फंदा पहने
आसन्न मौत की आशंका से परे लोगों की उत्सवी भीड़?

यह शहर है
या श्रम को बेदखल कर दिए जाने की
उन्नत प्रयोगशाला?

यह शहर है
या निरापद उमंगों का चमकीला कत्लखाना?

यह शहर है
या मानवीय गरिमा के हाशिएकरण की अंतरराष्ट्रीय योजना?

यह शहर है या खेतों का कोई क्रूर निरंकुश हत्यारा?

मैं विश्वविद्यालय से परिवहन अधिकारी से
रिजर्व बैंक से संघ मुख्यालय से
कोतवाल से मेयर से विधायक से मंत्री से
शीतकालीन विधानसभा सत्र में आए मुख्यमंत्री से
उपमुख्यमंत्री से गृहमंत्री से
अखबारों तक से पूछता हूँ
पूछता हूँ पूछता हूँ
लेकिन कहीं कोई उत्तर नहीं

वह मेरा अप्रवासी पूर्वज
बुझी बीड़ी का ठूँठ पकड़े मुझे घूरता रहा
फिर अचानक घसीटते हुए
मुझे ढकेल दिया एक विशाल कला-दीर्घा के भीतर,
वहाँ उड़ रही थी कटी पतंगों की तरह
चारों ओर अखबार की कतरनें

कतरनों में
भिन्न-भिन्न डोमाओं की भिन्न-भिन्न तस्वीरें
भाषण देते फीता काटते,
जुलूस की पहली पाँत में कारों पर प्रणम्य मुद्रा में चढ़े,
पुस्तकों का लोकार्पण करते,
दीक्षांत सभागृह में शिक्षा की जड़ें खोदते,
विद्यापीठ के विभागों में अपनी तोंद सहलाते,
कार दौड़ाते, व्यवसाय करते, संपादन करते,
कि संपादन का ही व्यवसाय करते,
अपनी अपनी कक्षाओं में छात्रों के भविष्य को
चूहे-सा कुतरते,
गद्देदार कुर्सियों में गोंद लगाकर बैठे
डॉक्टर, इंजीनियर, मंत्री, अधिकारी,
महापौर, जिलाधीश, पुलिस और सेना-अधिकारी,
स्टेशन मास्टर, कुलपति, मैनेजर,

इतने इतने डोमाजी उस्ताद
कि तबीयत ही खराब
रह रहकर मितली उठती
(क्या मेरा खुद का चेहरा भी
डोमाजी उस्ताद से जरा-जरा मिलने लगा है?
दर्पण आज देखा वहाँ मैं नहीं
कोई और ही था अँधेरे में मुस्कुराता हुआ)

‘पर्यटन रचनाशीलता के भाष्यकार कवि!’
दर्पण के उस ओर से
एक फिकरा गिरता है मुझ पर
मुझे ध्वस्त करता हुआ-सा

चक्कर चक्कर पर चक्कर
दुनिया सारी तेज गति से घूमती हुई
रोशनी और अँधेरा …और रोशनी… और अँधेरा…
रोशनी का अँधेरा अँधेरे की रोशनी
रोशनी के प्रदीर्घ मंच पर
अँधेरे का ही नर्तन

भँवर में फँसे किसी विवश तिनके की तरह
उम्मीद का स्थल तलाशता हुआ
कलादीर्घा से बाहर निकलकर
मैं बैठ जाता हूँ दीक्षाभूमि के प्रवेश द्वार पर
शायद यहीं से फूटे लालिमा का कोई नया रंग

फिर चक्कर खाई आवाज में पूछता हूँ
अपना अंतिम प्रश्न –
‘क्या विकास की संकल्पना का राजमार्ग
यही है जिस पर यह शहर
रेंग रहा अविचल?’

‘नहीं… मैंने ऐसा तो नहीं चाहा था…’

रात का अंतिम पहर था
जब मैंने दुख के जल से भीगी हुई
वह आवाज सुनी

वह एक बूढ़ा था
धवल केशराशि जट ही जट
छाती पर पड़ी बिखरी दाढ़ी
पीली बीमार आँखों पर धूप का चश्मा
घुटने घायल, छिली कोहनी
दोनों हथेलियों में गाँठ ही गाँठ
पैरों के पंजे पिघलकर बह चले हों जैसे

‘कौन…
इस उजाड़ अँधेरे में
दुख की सलीब उठाकर
लहूलुहान घूम रहे
तुम कौन हो बाबा?
क्या तुम भी इस चमकदार यात्रा से
धकियाकर बाहर कर दिए गए
एक त्यक्त यात्री हो?’

‘मैं…, हकलाते हुए बूढ़े ने कहा
शक्ति-तंत्रों के तलुओं तले
मसल दिए गए सिगरेट की ठूँठ सा पड़ा हुआ
यह शहर हूँ

‘अब इतना त्यक्त और उपेक्षित कि
हवाएँ मेरे कानों में गुनगुनाती नहीं
खेतों का स्पर्श मैं भूलता जा रहा
अप्रवासी पंछियों तक ने बदल लिए हैं अपने रास्ते

‘मेरे सीने में गाड़ी जाती हैं
असंख्य धर्म-ध्वजाएँ
धर्मस्थलियों से उठता शोर
रोज मुझे घायल करता है
कुकुरमुत्ते की तरह उग आते हैं धार्मिक केंद्र
रोज ब रोज

‘मेरी नसों में अब खून नहीं
विकसित हो रहे शहरों का मवाद बहता है

‘इतना नीचे चला गया है मेरा जल
कि जब प्यास लगती है
पाताल तक जाना पड़ता है
धुएँ से मेरी आँख फूट चुकी है
और उसमें चुभोए जा रहे हैं रोशनी के नश्तर

‘मेरे सिर को खींचकर
अंतरिक्ष तक तान दिया गया है
और सीना
जैसे दुर्गंध का उबलता हुआ कुंड

‘मैं असंतुलित भूगोल का
भुला दिया गया इतिहास हूँ
रस निकालने के लिए बार-बार
पेरा जाता है मुझे
हर बार कुछ बूँदें निकल ही आती हैं
हर बार मैं थोड़ा और मरता हूँ

‘जो बढ़ सकते थे
वे सब मुझे छोड़कर आगे बढ़ गए
मैं बचे हुए और उपेक्षित लोगों का
कब्रिस्तान हूँ
धीमी मौत का अंतहीन इंतजार

‘अब कोई शहर
उसके बूढ़े कोतवालों का मुरीद नहीं है
सभी बदली हुई इच्छाओं के
स्व-घोषित गुलाम हैं
जाओ तुम भी चले जाओ उधर रोशनी के समंदर में’

बूढ़े की आवाज रात के उस अंतिम छोर में
घुलती चली गई थी
जैसे किसी जमी हुई झील की
चटकती चोट खाई आवाज

पूरब में आसमान की नीली त्वचा
फट रही थी
शहर में चहलकदमी करते लोगों पर
सुनहरा खून बरसने लगा था
और लोग थे कि उदासीन ही थे
बस ये बचे-खुचे परिंदे थे
जो भय से चीख रहे थे

‘नहीं… ये चीख नहीं रहे हैं
गा रहे हैं…’
मुझे सुधारते हुए उस बूढ़े ने कहा –
‘बेबस दिनों में बेबसी के नहीं
आजादी के गीत गाने चाहिए

‘तुम भी गाओ
और गाते गाते यदि पहुँच सको
तो सुरक्षित संपन्नता के शोर के भीतर
उस निरीह चुप्पी तक पहुँचो
उस औचक् सन्नाक तक
जो मेरा तुम्हारा सबका अंतिम सच है

उस शालीन परछाई के नीचे
कहीं बहुत गहरे
सूख चुके आँसुओं की नमकीन लकीरों में
हमारा ही कोई अपना
कभी पूरा न हो पाया
एक बेचारा सपना
अब भी नीम की पत्तियों की तरह
हिलता है हिलता ही रहता है
जाओ हो सके तो उस सपने को बचाओ

कब्रिस्तान से बचे हुए लोग
जब भूख से बिलबिलाते हुए लौटेंगे
तुम उनके सामने रख देना
यही झिलमिलाता हुआ सपना’

मैं देखता हूँ इधर-उधर
वहाँ कोई नहीं था
यह कुदाल, तसलों, फावड़ों, सब्बलों
गैंती और घमेलों की आवाज थी
यह हथकरघों, ठेलों और रिक्शों की आवाज थी
साइकिल की घंटियों और चाय की धुलती गिलासों से
उठ रही थी आवाज

यह जागते हुए शहर की कामकाजी आवाज थी
जो हर उपेक्षित कोने से उठ रही थी
यह चमकीले संगीनों के साये में
घायल शहर की श्रमशील निर्द्वंद्व आवाज थी

मैंने उस आवाज को
शहर की सड़कों, गलियों,
धूप, हवा, धूल, पानी और पेड़ों की पत्तियों तक
लगातार फैलते हुए सुना।

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