नई-नई कोपलें | माखनलाल चतुर्वेदी
नई-नई कोपलें | माखनलाल चतुर्वेदी

नई-नई कोपलें | माखनलाल चतुर्वेदी

नई-नई कोपलें | माखनलाल चतुर्वेदी

नई-नई कोपलें, नई कलियों से करती जोरा-जोरी 
चुप बोलना, खोलना पंखुड़ि, गंध बह उठा चोरी-चोरी।

उस सुदूर झरने पर जाकर हरने के दल पानी पीते 
निशि की प्रेम-कहानी पीते, शशि की नव-अगवानी पीते।

उस अलमस्त पवन के झोंके ठहर-ठहर कैसे लहराते 
मानो अपने पर लिख-लिखकर स्मृति की याद-दिहानी लाते।

बेलों से बेलें हिलमिलकर, झरना लिए बेखर उठी हैं 
पंथी पंछी दल की टोली, विवश किसी को टेर उठी है।

किरन-किरन सोना बरसाकर किसको भानु बुलाने आया 
अंधकार पर छाने आया, या प्रकाश पहुँचाने आया।

मेरी उनकी प्रीत पुरानी, पत्र-पत्र पर डोल उठी है 
ओस बिंदुओं घोल उठी है, कल-कल स्वर में बोल उठी है।

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