महँगाई का अगीत | लीलाधर जगूड़ी
महँगाई का अगीत | लीलाधर जगूड़ी

महँगाई का अगीत | लीलाधर जगूड़ी

महँगाई का अगीत | लीलाधर जगूड़ी

कई बार मैंने बादलों को पकड़ने की सोची
वे गरज पड़े फिर सिर पर मँडराकर
बरस पड़े
फिर तलवों के नीचे से रिसकर निकल पड़े

जब भी वे छायेंगे। बहकर निकल जायेंगे
पहले जो बादल था वह अब पानी है
पहले जो पानी था वह अब दाना है
कई बार हाथ भी आये हैं कुछ बादल गेहूँ में
धान में
दलहन तिलहन से लेकर खेत खलिहान में

कई बार हाथ आये हैं वे नदियों में
मछलियों में। मिट्टी में और उद्यान में

इस बार बड़ी मुश्किल से हाथ आये वे
तो महँगे पड़े दाने
दाने-दाने में महँगी सुबह महँगे झोंके
महँगे उजाले
महँगी नींद और महँगे सपनों में हाथ आये
कुछ गिने चुने दाने

सर्दियों तक क्‍या क्‍या चीजें नहीं रह जायेंगी
क्‍या-क्‍या चली जायेंगी आसमान में
जैसे कि ऊन भी दूर चली जायेगी बादलों सी
पास आयेंगे बादल तो बारिश होगी
बारिश होगी तो जाड़ा आयेगा
बर्फ पड़ेगी। हिमालय की ऊँचाई बढ़ेगी
गिरेगा तापमान

बादल उपजेंगे दानों में
पहाड़ों में। मैदानों में
बादल बदलेंगे बाजार भाव

कई बार मैंने बादलों को पकड़ने की सोची
पसीने पसीने रह गया मैं
चले गये दल के दल बादल

जो या तो बरसे नहीं
या बरसे तो हाथ नहीं आये
या जो हाथ आये तो महँगे पड़े।

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