लकड़-सुँघवा | फ़रीद ख़ाँ
लकड़-सुँघवा | फ़रीद ख़ाँ

लकड़-सुँघवा | फ़रीद ख़ाँ

लकड़-सुँघवा | फ़रीद ख़ाँ

रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुँघवा का डर।

1

लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
‘सो जा बेटा, नहीं तो लकड़सुँघवा आ जाएगा।’
‘माँ, लकड़-सुँघवा को पुल
स क्यों नहीं पकड़ लेती?’
‘बेटा, वह पुलिस को तनख्वाह देता है।’

शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुँघवा आया
और बिना बच्चा चुराए चला गया।

पर एक रोज बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुँघवा। पर रात में।
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्ते भौंक रहे थे।
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव।
सोए हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक।
जो भाग सके वे अंधे, बहरे, लूले, लँगड़े हो गए,
लेकिन ज्यादातर नींद में ही सोए रह गए।

और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर।
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फाइलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर।

एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी।
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था।

2

जमीन के अंदर दबी बस्ती उभर आई अचानक।
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो।

पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू।
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी।
पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे।

अब किसको इसकी सजा दें और किसको पकड़ें धरें।

इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा, जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया।
खुदाई पूरी होने के इंतजार में खड़े लोग,
खड़े रह गए।

उन्होंने उतरना चाहा हालाँकि अंदर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुँघवा आया, लकड़-सुँघवा आया!!!
लकड़-सुँघवा आया, लकड़-सुँघवा आया!!!

[ लकड़-सुँघवा : लकड़ी सुंघा कर बच्चे को बेहोश करके बोरे में भरकर ले जाने वाला।]

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *