लालटेन | अरुण देव
लालटेन | अरुण देव

लालटेन | अरुण देव

लालटेन | अरुण देव

अभी भी वह बची है
इसी धरती पर

अँधेरे के पास विनम्र बैठी
बतिया रही हो धीरे-धीरे

संयम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी

काँच के पीछे उसकी लौ मुस्काती
बाहर हँसता रहता उसका प्रकाश
जरूरत भर की नैतिकता से बँधा

ओस की बूँदों में जैसे चमक रहा हो
नक्षत्रों से झरता आलोक

अक्सर अँधेरे को अँधेरे के बाहर कहा गया
अँधेरे का सम्मान कोई लालटेन से सीखे
अगर मंद न कर दिया जाए उसे थोड़ी देर में
वह ढक लेती खुद को अपनी ही राख से

सिर्फ चाहने भर से वह रोशन न होती
थोड़ी तैयारी है उसकी
शाम से ही सँवरती
भौंए तराशी जातीं
धुल-पुछ कर साफ होना होता है
कि तन में मन भी चमके

और जब तक दोनों में एका न हो
उजाला हँसता नहीं
कुछ घुटता है और चिनक जाता है कहीं
भभक कर बुझ जाती है लौ

वह अलंकार नहीं थी कभी भी
न अहंकार, न ऐंठ, न अति
कि चुकानी पड़े कीमत और फिर जाए मति

उसे तो रहना ही है

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *