किसी ईश्वर से अधिक विराट | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता
किसी ईश्वर से अधिक विराट | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

वे तीन सरकारी ड्राइवर थे
जो बातें कर रहे थे विजय माल्या के बारे में
दो लगातार बोले जा रहे थे

पहले ने कहा
अद्भुत आदमी है माल्या
ऊसर में फसलें खड़ी कर देता है

दूसरे ने कहा
बहुत शौकीन है वह
तरह-तरह के शौक हैं उसके
पानी के जहाज पर करता है पार्टियाँ
पानी की तरह बहाता है शराब
धन तो मैल है उसके हाथों की
वह किसी के हाथ न आएगा
सबको कर लेगा मुट्ठी में

दूसरा जब तक बोल रहा था
पहला बेचैन था कुछ कहने के लिए
टूट रहा था उसका धैर्य

जैसे ही चुप हुआ दूसरा
बोल पड़ा वह
हर साल शानदार कैलेंडर बनवाता है वह
जिसे देखने के लिए सब मरते हैं

जवान तो जवान बूढ़े भी आह भरते हैं

फिर उसने दूसरे के हाथ पर जोर की ताली मारी
हँसा ठठाकर उसके साथ
कि अचानक उसे ध्यान आया तीसरे का

तीसरा जो अब तक चुप था
पहले के कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा
“मैं नहीं बुलाया गया हूँ माल्या की किसी पार्टी में
मैं आज तक नहीं चढ़ा किसी भी जहाज पर
मैं इतना अमीर नहीं कि पी सकूँ अंग्रेजी शराब महँगी बीयर
मैं तो सस्ती भी नहीं पीता
मैं क्रिकेट भी नहीं देखता अक्सर
मुझे अश्लील लगता है आई.पी.एल. में धन का तांडव नृत्य

वैसे तुम लोग गए थे क्या राजाराम के वहाँ
उसके पिता के निधन के बाद?

सुना है बड़ी मुश्किलों से पाला था उन्होंने
अपनी पत्नी के निधन के बाद राजाराम और उसकी बहन को

मैं आज जाऊँगा उसके घर
वैसे तुम लोग कुछ ज्यादा ही परेशान हो
माल्या के बारे में
क्या माल्या की दिलचस्पी है
किसी ड्राइवर या चपरासी की मुश्किलों को जानने में
उसने तो तनख्वाह भी नहीं दिया
कई महीने से अपने जहाजी कर्मचारियों को

आज जब मैं दुखी हूँ अपने दोस्त के लिए
तो क्या वह मेरे साथ जाएगा राजाराम के घर
पीएगा उसके बर्तन में पानी
दुलराएगा उसका मन?

वैसे यह सिर्फ एक सवाल है
मैं इसका उत्तर जानता हूँ
जब तुम लोग नहीं जा रहे
जो रोज उठते-बैठते हैं साथ नौकरी करते हैं
तो वह क्या जाएगा एक दलित के घर
और यदि वह चला भी गया
तो संचार माध्यम उसे इस तरह
प्रकाशित, प्रसारित और प्रचारित करेंगे
जैसे रव-रव नरक में गया हो कोई त्यागी
किसी का उद्धार करने

हम गरीब हैं
वर्ण व्यवस्था के मारे हैं
लेकिन तमाशा नहीं हैं, यह हमें ही समझाना होगा जमाने को

विजय माल्या की समस्याएँ
एक उद्योगपति की अपनी बनाई समस्याएँ हैं
हम लोग साधारण लोग हैं
बहुतों की निगाहें है हमारी रोटी पर
क्षमा करना
मैं कोई माओवादी नहीं, एक ड्राइवर हूँ
लेकिन मुझे ऐतराज है
किसी धन्नासेठ की निजी समस्या को
राष्ट्रीय समस्या में बदलने की कोशिशों पर”

बोलते-बोलते लाल हो गया था उसका चेहरा
शब्द काँपने लगे थे उसके क्रोध की ज्वाला से

मैं वहीं थोड़ी दूर खड़ा था
मेरा मन झनझना गया था पूरी तरह
यकीन नहीं हो रहा था
कोई ड्राइवर सोच सकता है इस तरह

मेरा यकीन जो डगमगा गया था सपनों के बारे में
फिर सँभल गया थोड़ा-सा उसकी बातें सुनकर

मैंने देखा उसके दोनों साथी खिसक लिए थे धीरे से
उन्हें लगा होगा शायद खिसक गया है उनका साथी अचानक

मैं रोक न सका अपने को
तेज कदमों से पहुँचा उसके पास
किया एक जोरदार सैल्यूट
जैसे कोई जवान करता है झंडे को

मुझे ऐसा करते देख अकबका गया वह
बिना कुछ कहे ही चला गया दूसरी ओर
शायद उसे फालतू लगी होगी मेरी भावुकता

उस दिन वह एक मामूली-सा ड्राइवर
अपनी आत्मा का पहरुआ
मुझे किसी ईश्वर से अधिक विराट और शक्तिशाली लगा।

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