किसानों की प्रेम-कहानियाँ | नीरज पांडेय
किसानों की प्रेम-कहानियाँ | नीरज पांडेय

किसानों की प्रेम-कहानियाँ | नीरज पांडेय

किसानों की प्रेम-कहानियाँ | नीरज पांडेय

किसानों की प्रेम-कहानियाँ 
एक दो गदेला होने के बाद शुरू होती हैं 
और जब उस प्रेम कहानी में 
रबी 
खरीफ 
जायद का तड़का लगता है 
तब वो और भी महक उठती हैं

शादी के बाद 
कई महीनों तक 
बेचारे अपनी पत्नियों का चेहरा नहीं देख पाते 
पता लगा कि देर रात घर जाएँगे 
और भा भिनसार बाहर 
फिर सारा दिन खेत में 
निराई गोंड़ाई

मुहब्बत का रंग 
तो कई सालों बाद चढ़ता है 
जब रानी खाना लेकर खेतों में जाती है 
हिलती डुलती 
छम छम करती 
तब शुरू होती है असली कहानी

धान की 
बालियों को 
ठुनकियाते हुए बैठे 
किसान के चेहरे की झुर्रियाँ 
मेड़ पकड़े आती अपनी रानी की 
आँखों में सजे मोटे काजलों से बातें करके 
एक दूसरे का बीता हुआ सारा कुछ 
आपस में बतला लेते हैं 
बिना बोले ही

जब वो गेहूँ में 
पानी छँहराते हुए 
साल ओढ़े दूर बैठी 
अपनी रानी के होठों के गुलाबों से 
रिसती खूशबू महसूस करता है 
तो उसे लगता है 
जैसे उसके इश्क की 
खैरियत पूछी 
जा रही है 
वहाँ से

किसान अपनी प्रेम कहानियों से 
पुण्य भी कमाते हैं 
तीरथ-बरथ करने वाला पुण्य 
जब सुबिहते बैठी अपनी रानी को देख 
वो कहता है 
कि 
चल 
कहीं दूर 
पुराने भीटे पर 
किसी मोटवार पेड़ के नीचे बैठकर 
गुलकियों के लिए 
चार मूठी चाउर छीटें 
और चींटियों के लिए दो मूठी पिसान अड़ाएँ 
उनके अघाने भर का

बरसात के दिनों में तो इनकी प्रेम कहानियाँ 
कई कल्ले फोरती है 
बूँदों से बतलाते हुए 
जब एक दूसरे को 
भूँजा हुआ दाना चबवाते हैं 
तो मारे शरम के नीचे बिछी दूबें 
और भी हरी और चटकदार हो जाती हैं

कभी किसी किसान जोड़े को 
खेतों में काम करते हुए देखो 
मुहब्बत की एक नई परिभाषा दिखेगी 
जिसमें 
पायलों का निर्गुण 
चूड़ियों का लोकगीत 
भेली के पाग में सनी हँसी 
और 
महकती महकती देह 
खेतों में मुहब्बत की ऐसी अँजोरिया फैलाते हैं 
कि 
कब बोया 
कब काटा 
पता ही नहीं चलता 
मुहब्बत तले हर तूर यूँ निकल जाता है

बहुत 
कम समय 
के लिए रहती हैं 
इन प्रेम कहानियों की दस्तखत 
खेतों के दोमट, बलुई और काले पन्नों पर 
फिर कुछ खत्म कर दी जाती हैं 
कुछ खुद खत्म हो जाती हैं 
कई तरीके होते हैं इन्हें खत्म करने के 
कुछ तरीके सरकार के पास होते हैं 
और कुछ भगवान के 
किसान सरकार से कुछ नहीं कहता 
और भगवान हैं कि सुनते नहीं 
जबकि सबसे ज्यादा भगवान 
खेतों से ही मनाए जाते हैं 
खुरपी और कुदालों को 
उन्हीं का नाम लेकर 
हाँका जाता है 
जितनी बार चलाई जाएँगी 
उतनी बार गोहराया जाएगा 
“हे भगवान पार करा” 
लेकिन 
किसानों और भगवानों की कभी नहीं जमी 
उसे 
गरम 
पूड़ी में रुकी 
भाप जितनी मिलती हैं खुशियाँ 
बस चार कौर में खतम 
रोआई तो तब छूटती है 
जब चौथा कौर खाए बिना ही 
नीले शंख से बुलउवा आ जाता है 
कि चलो समेटो अपनी प्रेम कहानियों को 
और कहानियाँ सिमट जाती हैं 
एक आखर में 
कुछ पूरी से कुछ कम 
कुछ बिल्कुल अधूरी!

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