कई तरह से बनती है आग - 2 | बाबुषा कोहली
कई तरह से बनती है आग - 2 | बाबुषा कोहली

कई तरह से बनती है आग – 2 | बाबुषा कोहली

कई तरह से बनती है आग – 2 | बाबुषा कोहली

( एक)

मैं फ़्रांस हूँ और यह असंभव है कि मैं कभी साइबेरिया हो जाऊँ
मेरे गुंबदों पर सोने के तार जड़े हुए हैं
मेरे अस्तित्व पर बर्फ नहीं गिरती

मेरी हर भंगिमा एक अनिवार्य अर्थात है
मेरा हर श्वास नूतन है
विश्व के कुछ हिस्सों के लिए प्रेरक तो कुछ के लिए घातक भी हूँ मैं

मेरे प्रति तटस्थ दृष्टिकोण रखना असंभव है

( दो)

देखा मैंने कैसे काँपता है मूसलाधार बारिश में पीपल का पत्ता
और देखा मैंने पत्ते पर जड़ा हुआ पानी का मोती
कैसे तो बनती-बिगड़ती हैं सिगरेट के धुएँ से लकीरें
हाथ की लकीरें हैं कि सिगरेट का धुआँ

मैंने देखा
शराब की ताजा खुली बोतल से उफनता हुआ झाग
शराब से कहीं ज्यादा नशा उफान का होता है

देखा मैंने ऊँचाई से बहता एक पवित्र झरना भी
और देखी मैंने सुबह की पहली किरण सी कुँवारी मुस्कराहट
नाचती आवाज देखी
रोता हुआ नाच देखा

आँसू छल प्रेम पीड़ा विद्रोह से बनी है वो शराब जो बोतल में भरी है
शराब का उफान देखा
उफान की ढलान देखी
ढलते हुए झरने पर चमकती हैं उगते हुए सूरज की किरणें

बादल देखे
बारिश देखी
झरना देखा
ढलना और फिर उगना देखा

( तीन)

फ्रायड की मानें तो हर युद्ध का कारण था
स्वर्ग के बाग के उस पेड़ में उगा हुआ लाल फल
मार्क्स की सुनें तो हर क्रांति के पीछे
हमेशा ही रही रोटी
कच्ची-पकी अधसिंकी या पूरी जली रोटी

न मुझे मानें न सुनें
बस ! इतना ही जानें
कि इक्कीस बार प्रलय का कारण थी मेरी गीली आँखें

ओ नूह !
पतवार सँभाल लो
फिर एक बार हवाएँ उलटी बह रही हैं इन दिनों

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