कचरा फैक्ट्री | अशोक कुमार
कचरा फैक्ट्री | अशोक कुमार

कचरा फैक्ट्री | अशोक कुमार – Kachara Factory

कचरा फैक्ट्री | अशोक कुमार

“दादा बड़ा न भैय्या, सबसे बड़ा रुपैय्या”! क्योंकि भैय्या चाहे भी तो रुपैये के बगैर कुछ कर नहीं सकता। रुपया है तो रुतबा है, इज्जत है, जरूरत-गैर जरूरत की खरीदारी है, हर प्रकार का ऐश है! इसी रुपये के लिए तमाम लोग युगों युगों से नहरों, नदियों, सागरों, देशों – कहाँ कहाँ नहीं भटके! अमरीका की तो ईजाद ही इसी ‘भटकन’ के चलते हुई थी और भारत! भारत की तो खोज ही इसलिए हुई थी कि ‘अमीरों का देश है, बड़े खरीदार मिलेंगे, अपना माल बेचने के बड़े मौके मोहय्या होंगे’! याने सब कुछ इस ‘रुपैय्ये’ के लिए, पैसा कमाने के लिए। कमाने का सब का अपना अपना तरीका है। कुछ लोग अपना माल बेचने के लिए नए नए मार्केट ढूँढ़ते हैं, कुछ लोग मौजूदा मार्केट परिस्थितियों में कमाने के नए नए तरीके ईजाद करते हैं। इतिहास गवाह है नए मार्केट ढूँढ़ने वालों ने कहाँ कहाँ सफर नहीं किया! हाँ! जब से इंटरनेट आया है जमाना बदल गया है। अब लंबी लंबी तकलीफदेह यात्राएँ नहीं करनी पड़ती। अब ‘माउस’ पर एक क्लिक किया कि दुनिया स्वयं सामने आ जाती है।

ऑस्टिन, टेक्सास यू.एस.ए. के जेम्स विलियम्सन ने भी ‘माउस’ पर क्लिक किया और ढूँढ़ना शुरू किया। ढूँढ़ना शुरू किया कि वह अपनी ईजाद की हुई ‘गार्बेज डिस्पोजल’ वाली टेक्नोलॉजी – जिसे उसने पेटेंट कर लिया था – कैसे और कहाँ बेच सकता है। जेम्स की ‘लेबोरेटरी-बेस्ड’ टेक्नोलॉजी के हिसाब से शहर का टनो कचरा बड़े बड़े ट्रकों में लाया जा कर ‘लैब’ के बड़े बड़े ड्रमो में प्रेशर में घुमाया और दबाया जाता। वहाँ से इसे बड़े बड़े ‘वेसल्स’ में ट्रांसफर किया जाता जहाँ कचरे के सब अवयव – काँच, प्लास्टिक इत्यादि अलग किए जाते। फिर इसे ऐसे ‘ट्रीट’ किया जाता कि कचरे से उसकी बदबू दूर हो जाए। इसके बाद मशीन के अंत में से एक काले गाढ़े पेस्ट जैसा पदार्थ प्राप्त होता जिसे उसी प्लांट की दूसरी मशीन में ट्रांसफर कर के सुखाया जाता और उस सूखे हुए पदार्थ के गोल गोल केक की तरह के टुकड़े काटे जाते। ये ‘केक ‘इंडस्ट्रियल प्लांट्स’ की फर्नेसेस में ईंधन की तौर पर काम आने वाले होते जो कि कोयला जलाने से कई गुना सस्ता बैठते। कचरा जमा करने से केक बनने तक का ‘प्रोसेस’ लंबा था। लेकिन जेम्स ने इसे पहले सोचा था, प्रयोग किया था, पेटेंट कर लिया था और अब वो जो चाहे उसे इस तकनीक को बेचना चाह रहा था। हालाँकि अमरीकन प्रेस ने जेम्स की इस तकनीक की तारीफों के पुल बाँध रखे थे और इस वजह से दुनिया उसकी इस ईजाद से वाकिफ थी लेकिन इसके बेतरह महँगे होने के कारण इसके खरीदार बहुत ज्यादा नहीं थे। यही वजह थी कि जेम्स ने पश्चिमी दुनिया के मार्केटिंग का गोल्डन रूल अपनाया – ‘जब विकसित देशों में मार्केट न मिले तो गैर विकसित या कम विकसित देशों – जिसे दुनिया तीसरी दुनिया भी कहती है – में अपना माल बेच दो’! जेम्स ने अपनी टेक्नोलॉजी का बखान करते हुए तमाम देशों/शहरों को तमाम ई-मेल भेजे – सरकारों को, सरकारी एजेंसियों को, म्युनिसिपल कॉर्पोरशंस को, सोशल बॉडीज को। एनजीओज को, अखबारों को और और भी तमाम को।

लेकिन ये सिलसिला बहुत दिनों से चल रहा था और कहीं से कोई संतोषजनक जवाब न आने के कारण जेम्स का सब्र अब जवाब देने लगा था। नवंबर का महीना चल रहा था, सर्दियाँ बस शुरू होने को थीं और सर्दियों में उसे मालूम था कि कचरे की प्रॉब्लेम और मौसमों की तुलना में कम होती है इसलिए ऐसी टेक्नोलॉजी की खरीदारी भी मुश्किल होती है। जेम्स को रह रह कर ये कचोट रहा था कि कहीं इस साल भी उसे अपनी बचाई हुई मूड़ी में से ही काम न चलाना पड़े।

उस साल बंबई से सटे ठाणा शहर में नवंबर का कोई खास असर नहीं था। मौसम साफ था, गर्मियाँ बरकरार थीं और शाम के पाँच के आस पास स्टेशन के पूर्व वाले बड़े से गांधी मैदान में धूप झुलसा रही थी। एक तरफ बड़ा सा पंडाल लगा था। तकरीबन दो हजार लोग खड़े/बैठे सुन रहे थे और शहर की लोकप्रिय कॉर्पोरेटर नीला शेट्टी भाषण दे रही थीं।

– “हम कितने भाग्यशाली हैं कि सत्यदेव शर्मा जी ने अपनी सेवाओं के लिए अपने शहर ठाणा को ही चुना” नीला शेट्टी ने मंच पर बैठे गणमान्यों में सत्यदेव की तरफ हाथ का इशारा करते हुए गर्दन मोड़ कर कहा, “ये ठाणे में कचरा फैक्ट्री शुरू करने जा रहे हैं। अब शहर के कचरे की सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी।”

सब ने ताली बजाई, नीला जी ने अपनी कुर्सी के पास आकर माथे का पसीना पोंछा, शर्मा ने खड़े हो कर हाथ जोड़े, कमर झुका कर नीला जी का आभार व्यक्त किया और पब्लिक की ओर हाथ हिला कर उसके प्रोत्साहन का धन्यवाद किया। सभा समाप्त हो गई। कचरा फैक्ट्री लगाने की शुरुआत हो गई।

शर्मा जी के पूर्वज बुंदेलखंड में झाँसी के पास के एक छोटे से गाँव ‘पिछोर’ से आ कर कभी ठाणे शहर में बस गए थे। ठाणा तब रुतबा भले ही जिले का रखता हो, था तो गाँव जैसा ही। हाँ, सुविधा के मामले में बंबई से सटा था इसलिए बंबई में काम करने वाले सस्ते में यहाँ रह सकते थे। पिता संस्कारी थे और थोड़े में गुजारा करना उनकी मजबूरी जनित ही सही लेकिन आदत बन गई थी। सत्यदेव की शिक्षा ठाणे के ही एक सरकारी स्कूल में हुई थी। बचपन से ही ये स्वयंसेवक की तौर पर संघ की शाखा के सदस्य रहे, बाद में कार्यकर्ता हो गए। इमरजेंसी में जेल भी हो आए। लोग सिखाते रह गए की “सत्तो! दुनिया को दस्तूर है कि ‘दुनिया ठगिए मक्कर से, रोटी खइये शक्कर से’…। कछु करो कि लाइफ बने…। ईमानदारी को जमानो नई रओ…।!” लेकिन शर्मा जाने किस मिटटी के बने थे। टूटने को तैयार मगर झुकने को नहीं। देश सेवा इनके सर में जूनून की हदों तक था और निस्स्वार्थ भाव अंतर में कूट कूट कर भरा था। बोलते बहुत कम थे। सफेद कुरता, सफेद पजामा, काला, बगैर चमड़े का, जूता – जो इनके साँवले रंग पर फबता भी था – इन्होने जैसे अपनी ड्रेस बना ली थी। बी.एस.सी. तक पढ़े थे। घर अभी तक पिताजी की पेंशन से किसी तरह चल रहा था लेकिन अब पिताजी भी चला-चली पे थे। जिम्मेदारी इन पर आने वाली थी।

सिफारिश में ये विश्वास नहीं करते थे इसलिए नौकरी न थी न मिलने की कोई उम्मीद थी। और फितूर ये था कि यदि काम किया जाए तो ऐसा कि जो देश हित में और जन सेवा का हो। ‘करो तो परमार्थ, स्वार्थ तो सभी करते हैं’! कैमिस्ट्री इनका प्रिय विषय था और भारतीय पुरातन शास्त्रीय विद्या में हद दर्जा रुझान। तो सब प्रकार के मंथन से जो निकला वो था शहर का कचरा ट्रीट करने की फैक्ट्री! हालाँकि इन्होंने ऐसी फैक्ट्री लगाने का कई लोगों/कंपनियों को सुझाया था लेकिन ठाणे पूर्व की कॉर्पोरेटर नीला शेट्टी ने सुना तो उछल पड़ीं। उन्हें ये ‘आईडिया’ भी पसंद आया और ये ‘सीधा-सादा’ आदमी भी। नीला जी ने शर्मा को अपने क्षेत्र का शहर का हर हिस्सा घुमाया, सर्वे करवाए, एक बड़ा सा खाली पड़ा मैदान अलॉट करवा दिया और कचरे की फैक्ट्री लगाने के सारे इंतजाम मोहय्या करवा दिए। और जब सरकार साथ दे तो हर तरह से हाथ बटाने के लिए ‘बंदे’ तो तमाम तैयार हो जाते हैं!

शर्मा का ठाणे महानगर पालिका – टी.एम.सी. – के साथ करार हो गया। करार ये था कि टी.एम.सी. शहर का कचरा अपने ट्रकों में भरवा कर शर्मा की फैक्ट्री में ‘डंप’ करवा देगी। कचरा ‘डिस्पोज’ करने की शर्मा की तकनीक काफी सरल थी। जिसके हिसाब से डंप किए हुए कचरे के बड़े बड़े ढेरों पर किसी आयुर्वेदिक पद्दति से बनाये गए एक मिश्रण का छिड़काव किया जाता – जिससे कचरे की बदबू एकदम गायब हो जाती। फिर इस कचरे को एक घूमती हुई बहुत बड़ी बेलनाकार मशीन में डाला जाता जहाँ कि कचरे के प्लास्टिक, काँच इत्यादि अवयव अलग हो कर एक तरफ बाहर निकल जाते और दूसरी तरफ निकलता भूसा नुमा खेती में काम आने वाला खाद। मशीन में बाकी बचे पदार्थ को पानी भरे बंद टब में भेज दिया जाता जहाँ वह एक पतले और हलके नीले रंग के ‘लिक्विड’ में तब्दील हो जाता जो पैकेटों/डिब्बों में पैक हो कर ‘क्लीनिंग लिक्विड’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता। इस सब से दो बातें होना तय थीं। एक कि शहर बिना किसी खर्च के साफ किया जा सकेगा और दूसरे कि शर्मा इस खाद और क्लीनर को बेच कर कमाई कर सकेगा। टी.एम.सी. और शर्मा के बीच पैसे का कोई आदान प्रदान नहीं होना था। अलॉट किया गया जमीन का प्लाट लीज पर दिया गया था जिसका शर्मा को टी.एम.सी. को हर साल निश्चित किराया देना था।

कचरा फैक्ट्री शुरू हुई नहीं कि ठाणे शहर साफ रहने लगा। बड़े बड़े नेता, गणमान्य सोशल वर्कर्स, बुद्धिजीवी, पर्यटक जब शहर में पधारते तो कचरा फैक्ट्री देखने जरूर पहुँचते। ‘आखिर देखूँ तो सही क्या अजूबा है! कचरे की ट्रीटमेंट! – न कभी सुना न देखा!’ ठाणे-दर्शन की टूरिस्ट बसों के लिए कचरा फैक्ट्री भी एक ‘स्टॉप’ बन गया। जो देखता तारीफों के पुल बाँध देता। शर्मा का सीना फूल जाता लेकिन वे सिर्फ हलके से मुस्कुरा कर हाथ जोड़ कर तारीफ करने वालों का आभार व्यक्त कर देते। तकरीरों में, सभाओं में, कमेटियों में कचरा फैक्ट्री का श्रेय मिलता नीला शेट्टी को और वे जिस शान से साडी का पल्लू कंधों पर उछाल कर अपना माथा ऊँचा करके मुस्कराहट छुपाने की कोशिश करतीं वह तारीफ के काबिल होता।

माहौल ऐसा ही खुशगवार और साफ सुथरा था जब ठाणे महानगर पालिका के नए कमिश्नर श्री चललादोरई ट्रासंफर हो कर शहर में आए। आए तो वो भी कचरा फैक्ट्री देखने गए और अपनी ‘विजिट’ के बाद सफेद सरकारी एंबेसडर में बैठते बैठते शर्मा की पीठ थपथपाते हुए बोले – ‘इनक्रेडिबल’!

कचरा साफ होता रहा, फैक्ट्री चलती रही, तीन महीने तीन दिनों की तरह आनन फानन में गुजर गए।

एक दिन! दोपहर का वक्त था नीला शेट्टी अपनी कत्थई ओपल एस्ट्रा में फैक्ट्री में दाखिल हुईं। धूप और गर्मी बेतरह थी। वरांडे में दस कदम पर शर्मा का केबिन था। नीला जी ने घुसते साथ अपना बैग धम्म से मेज पर पटका, माथे पर छलछला आया पसीना पोंछा और कुर्सी खींचकर बैठते हुए पूछा, “और शर्मा! क्या हाल है?”

– “आपकी कृपा है मैडम!” शर्मा को नीला के आने को कोई सूचना नहीं थी। वह ताज्जुब और शिष्टाचार दोनों के मिले जुले भाव से कुर्सी से उठा और उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। फिर फौरन मेज पर लगी ‘बॉय’ को बुलाने के लिए घंटी टनटनाई। “क्या पिएँगी? …चाय, ठंडा…।”

– “नई नई वो सब छोडो,” नीला ने बात काटते हुए जल्दी में कहा, “देखो शर्मा,” और वे बगैर समय बर्बाद किए सीधे ‘पॉइंट’ पर आ गईं, ” इलेक्शन आ रहे हैं, तुम मुझे पाँच लाख दो।”

– “पाँच लाख!” शर्मा अपनी कुर्सी में वापस बैठते बैठते ठिठक गया।

– “एक्चुअली,”नीला ने अपने मुँह पोंछे हुए रूमाल को तहाकर थपथपाया और अपनी जाँघ पर ऐसे रखा जैसे के वह रूमाल नहीं कोई ईंट हो। फिर बोलीं, “मैंने तुम्हारी मदद की है। इसलिए लेना तो तुमसे मुझे ज्यादा चाहिए लेकिन तुम अच्छे आदमी हो इसलिए फिलहाल सिर्फ पाँच से ही काम चला लूँगी।”

शर्मा की बुद्धि जड़ हो गई। समझ में कुछ नहीं आया कि क्या कहे, क्या जवाब दे, क्या करे। एक मिनट अपने चश्मे के अंदर आँखें मिचमिचाने के बाद उसके मुँह से केवल इतना निकला कि, “मैडम, इतना पैसा तो मेरे पास नहीं है।” फिर जैसे उसे स्थिति का भास हुआ और उसकी सिद्धांतवादी बुद्धि ने साथ दिया, बोला, “लेकिन अगर मेरे पास इतना पैसा होता भी तो भी में ने ऐसा कोई अनुचित काम तो किया नहीं जिस कारण मुझे किसी नेता को रिश्वत देनी पड़े। मैं समझता था कि आपने मेरी मदद इसलिए की है कि ये प्रोजेक्ट ठाणे में लोगों की भलाई के लिए है।”

– “पर मेरी भलाई का क्या…! …और ये सिद्धांतवादी भाषण मत सुनाओ मुझे। कोई जल्दी नहीं है। सोच लो। इम्मीडिएटेली नहीं, पैसा मुझे अगले हफ्ते तक चाहिए।”

– “में तब तक भी नहीं दे पाऊँगा।” शर्मा ने सपाट कहा।

-” आई सी…! ओ के..!” नीला शेट्टी ने अपनी कुर्सी पीछे खिसकाई, उठ कर खड़ी हुई और बैग उठा कर सीधे दफ्तर के बाहर वाक-आउट कर गई।

शर्मा अविश्वास से किंकर्तव्यविमूढ़, जड़ हो गई बुद्धि लिए बैठे उसे कॅबिन के बाहर जाते हुए देखता रह गया।

इस मीटिंग का नतीजा नजर आया दूसरे दिन। जब शहर के सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार मे हैडलाइन छपी – “कचरा फैक्ट्री से उठती बदबू से शहर में तमाम बीमार”। खबर की शुरुआती पंक्तियों में कचरा फैक्ट्री की तारीफ में लिखा गया था कि कचरा ‘ट्रीट’ करने के लिए इससे अच्छा विकल्प हो ही नहीं सकता था और लोगों के भले के लिए इसे लगाना सही था। बाद में लिखा गया था कि इस फैक्ट्री से उठती बदबू ने आसपास के रहवासियों का जीना दूभर कर दिया है। कुछ बच्चे तो अब तक बीमार भी पड़ चुके हैं और बहुतों को साँस की तकलीफ शुरू हो गई है। अस्पतालों में बीमारों की लाइन लग गई है और करीब में रहने वाले लोगों के लिए रातें काटना भारी हो रहा है। खबर के जरिए सलाह दी गई थी कि इस सब के मद्देनजर बेहतर यही होगा कि यह कचरा फैक्ट्री बंद कर दी जाए।

रिपोर्ट शर्मा ने पढ़ी तो उसने उसे कल की मीटिंग से जोड़ा। कमिश्नर के मुस्कराहट छूट गई। फैक्ट्री के आस पास रहने वालो ने लंबा लंबा साँस भर कर बदबू महसूस करने की कोशिश की और ताज्जुब जाहिर किया। बिल्डर सुनील घारे गश खा कर अपनी कुर्सी से ऐसे गिरा जैसे उसे दिल का दौरा पड़ा हो। सुनील घारे ने हाल ही में कचरा फैक्ट्री से लगा हुआ एक बड़ा सा प्लॉट खरीदा था। कचरा फैक्ट्री शहर का लैंडमार्क बन गई थी और उसके बगल में उसका इरादा ‘लक्जरी फ्लैट्स’ बनाने का था। इस प्लॉट के लिए उसने क्या क्या तो पापड़ नहीं बेले थे! ये जगह दरअसल प्लान में बच्चों के खेल के मैदान के लिए आरक्षित थी लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री किसी अच्छे ‘ऑफर’ के ऐवज इसका ‘यूज’ बदलने को तैयार थे। असेंबली के चुनाव सर पर थे और सुनील घारे का ऑफर ‘अच्छा’ था। और जब साहेब मंजूरी दे दें तो टी.एम.सी., लैंड डिपार्टमेंट, कलक्टर…। गरज कि जो जो इसमें कुछ कर सकता था सहयोग कैसे न करता! इस तरह करोड़ों सर्फ करने के बाद सुनील घारे बस भूमि-पूजन करके बुकिंग शुरू करने ही वाला था कि ये खबर आ गई तो लाजमी था कि ये ‘बदबू’ उसे हार्ट अटैक देती! बदबूदार जगह में कौन रहना चाहेगा!

– “चललादोरई साब! आज का पेपर देखा क्या?!” नीला शेट्टी ने टी.एम.सी. कमिश्नर को फोन किया।

– “मै तो ताज्जुब में पड़ गया क्योंकि आप तो उसकी तारीफ करते नहीं थकती थीं।”

– “अ र र र रे …लेकिन तब मुझे प्रोजेक्ट के पीछे की रियलिटी मालूम नहीं थी न!”

– “यु सी …गार्बेज ट्रीटमेंट बहुत स्पेशलाइज्ड जॉब है। कुछ अमेरिकन कंपनियों ने इसे ईजाद किया है, पेटेंट किया है। इसके लिए इंटरनेशनल लेवल का साइंटिफिक दिमाग चाहिए। ये अपने देसी देहातियों के बस का काम नहीं है। ये तो कचरे में पैदा होते हैं, कचरे में जीते हैं और कचरे में ही मर जाते हैं…” चललादोरई आई.ए.एस. ने अपनी ‘चास्त’ लंदन इंग्लिश में समझाया।

तय ये हुआ कि अखबार की रिपोर्ट की बिना पर शर्मा को मीटिंग के लिए बुलाया जाए और अगर जरूररत समझी जाए तो एक इन्क्वायरी समिति बैठा दी जाए।

फोन रखने के बाद चललादोरई ने दो काम किए। एक जेम्स विलियम्सन – जिसका ऑफर लेटर उसके पास आया पड़ा था – के लिए अपने पी.ए. को ‘मेल’ डिक्टेट किया जिसमें लिखा कि वह फौरन अपना नुमाइंदा मुलाकात के लिए भेजे और दूसरा आर्डर दिया कि शर्मा को मीटिंग के लिए फौरन तलब किया जाए।

मीटिंग, जैसा कि होना था – औपचारिकता थी। चललादोरई ने कचरा इकट्ठा और डिस्पोज करने वाले पर्यावरण संबंधी सभी वरिष्ठ अधिकारियों को मीटिंग में बुलाया और बदबू के विषय में उनसे अपने अपने विचार व्यक्त करने को कहा। आखिर साहेब के मातहत होते किस लिए हैं! अधिकारी साहेब का मन समझते थे। बीच बीच में हालाँकि चललादोरई कभी कभी शर्मा की तरफदारी कर देता था लेकिन बस उतना ही। नीला शेट्टी जब पहुँची तब मीटिंग समाप्ति पर थी। मौजूद अफसरों ने नीला को मीटिंग मे क्या हुआ वो समझाया और फिर सब ने मिल कर तय किया कि मामला ‘इंवेस्टिगेट’ करने के लिए एक कमिटी गठित की जाए जो जब तक अपनी रिपोर्ट ने दे दे फैक्ट्री में काम बंद कर दिया जाए।

-“व्हाई…। व्हाई…। व्हाई…?” चललादोरई कुर्सी में जैसे अपनी नींद से चौंका।” नो नो…। काम बंद नहीं कर सकते। तुम जानते हो कितना कचरा शहर की सड़कों पर जमा हो जाएगा! …क्या बात करते हो! …टी.एम.सी. का नाम खराब हो जाएगा। मै अभी अभी आया हूँ और मै अपना नाम खराब नहीं होने देना चाहता।”

एक मिनट की खामोशी रही और बात सब की समझ में आ गई। अधिकारियों के सर ‘यू आर राइट सर’ में हिले और फिर तीन फैसले लिए गए। एक कि फैक्ट्री फिलहाल जैसी चल रही है वैसे ही चलने दी जाए। दूसरा कि इन्क्वायरी कमिटी फौरन बना दी जाए जो कि अपना काम दूसरे दिन से ही शुरू कर दे और तीसरा कि शहर का कचरा ‘डिस्पोज’ करने के लिए दूसरे विकल्प ढूँढ़े जाएँ ताकि जब फैक्ट्री बंद हो जाए तब भी शहर को साफ रखा जा सके।

दुसरे दिन कमिटी मेंबर्स सुबह सुबह ही कचरा फैक्ट्री पहुँच गए। उनको बदबू की उम्मीद थी लेकिन जब वे पहुँचे तो बदबू इधर उधर सूँघने के बावजूद उन्हें महसूस नहीं हुई। कमिटी वालों ने एक दूसरे की तरफ देखा और समझ गए कि कमिटी का मकसद क्या है। उनसे बहरहाल ईमानदारी, मुस्तैदी और निष्पक्षता से काम करने को कहा गया था सो उन्होंने ‘असहनीय बदबू’ अपनी रिपोर्ट में दर्ज कर लिया।

उसी दिन शाम को चललादोरई के लिए – जेम्स का टेक्सास से फोन आया। उसके पास जब मेल भेजा गया था तब उसके लिए रात थी और तब वह नींद में था, अब जागा था। जेम्स ने कहा कि वह चललादोरई को अपना ‘कोटेशन’ और ‘एग्रीमेंट-फॉर्म’ फौरन भेज रहा है और अपने भारतीय ‘कॉन्टैक्ट’ को कमिश्नर से मुलाकात के लिए भेजने का भी तय कर रहा है।

– “ठाणे बहुत बड़ा डिस्ट्रिक्ट है जेम्स। कॉन्ट्रैक्ट कुछ नहीं तो मिलियन डॉलर का हो सकता है। और आप जानते ही हैं कि मेरे पास और भी ‘कॉम्पिटिटिव-कोट्स’ हैं।” चललादोरई ने जेम्स को ललचाने की कोशिश की।

– “बेफिक्र रहिए! में अपनी मशीन भी जानता हूँ और पैसे की अहमियत भी।”

– “गुड!”

– “हडसन – मेरा एजेंट – बंबई में ही रहता है और वो कल ही सुबह नौ बजे आप के दफ्तर में आपसे मिलने आएगा।”

– “मैं रहूँगा”

हडसन साठ की उम्र के आस पास का अँग्रेज था जिसने पर्यावरण के क्षेत्र में काफी काम किया था और तजुर्बा और ज्ञान हासिल किया था। पहली बार वह एक एन.जी.ओ. के लिए कंसलटेंट बन कर भारत आया था और उसे इस देश ने वो प्यार और रुतबा दिया कि वह अपनी वापसी लगातार मुल्तवी करता रहा। हडसन मूल रूप से लिवरपूल का था लेकिन वहाँ उसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी इकलौती बेटी को उसकी शक्ल देखना तक नागवार था सो वह अलग कही दूर रहती थी। इन हालात में हडसन को कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह कहाँ रहे…। या कहीं भी रहे। और भारत उसे बहुत ‘पसंद’ था। एक बात और भी थी और वो ये कि हडसन हद दर्जा साफ-गो था और तबियत से बेतरह ईमानदार – जिसके कारण उसके दोस्त कम थे और वह कभी किसी भी तरह ‘सफल’ नहीं हो सका। कोई कंपनी उसे अपने यहाँ रखना नहीं चाहती थी। इस सब के चलते हडसन कहीं भी रहे क्या फर्क पड़ता था! और भारत तो वैसे ही गोरा-पूजक देश है। यहाँ के लोगों ने उसे खुले दिल से स्वीकार किया। सरकारी बाबू/अफसर शाही भले ही उसकी ईमानदार सोच के कारण उसे पसंद न करते हों, एन.जी.ओ. उसे हाथोंहाथ लेते थे। जब जेम्स विलियम्सन को अपने लिए भारत में एक ‘लिएजों-पर्सन’ चाहिए था तो उसने गूगल किया और सर्च में जो नाम सबसे पहले आया वह हडसन का था। हडसन के लिए काफी बड़े बड़े एनजीओज ने तारीफ लिखी थी। जेम्स को ऐसे ही शख्स की तो तलाश थी।

हडसन बंबई में वर्ली सी फेस पर तीन मंजिला इमारत में दूसरे फ्लोर पर रहता था। सुबह के वक्त उसके फ्लैट से ठाणा का सफर टैक्सी में मुश्किल से पैंतालीस मिनट का था। हडसन, तय शुदा वक्त, नौ बजे जब कमिश्नर ऑफिस पहुँचा तब वहाँ झाड़ू लग रही थी और ‘साहेब’ ‘आने ही वाले’ थे। चललादोरई साढ़े दस बजे पहुँचा, मीटिंग के लिए देर से आने के लिए बगैर किसी ‘अपोलोजी’ के वह सीधा मुद्दे पर आ गया। उसने हडसन को फैक्ट्री के एग्रीमेंट, लोकेशन, उसके प्लॉट का क्षेत्रफल, कचरे के ट्रीटमेंट की पद्धति, अखबार की रिपोर्ट इत्यादि सबके बारे में तफ्सील से समझाया और जेम्स की मशीनरी की मदद से कचरे का डिस्पोजल किस तरह बेहतर और गैर-बदबूदार तरीके से हो सकता है की बारीकियों को भी डिसकस किया। हडसन ने कहा कि वह सबसे पहले मौजूदा फैक्ट्री की ‘साइट’ पर जा कर चीजों का जायजा लेना चाहता है। तय हुआ कि आने वाली सुबह वह इन्क्वायरी कमिटी वालों के साथ फैक्ट्री का चक्कर लगाए। इस बात के दो फायदे थे – एक तो खैर यह था ही कि हडसन फैक्ट्री देख आयगा लेकिन जो दूसरी अहम और अनकही वजह थी वो यह कि इन्क्वायरी समिति अपनी रिपोर्ट में लिख सकेगी कि उसने अपनी रिपोर्ट में एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण एक्सपर्ट की राय भी शामिल की है। मीटिंग जब समाप्त हुई और चललादोरई और हडसन ने बाई बाई में हाथ मिलाया, चललादोरई बोला, “मिस्टर हडसन! इन्क्वायरी समिति पब्लिक की बहुत शिकायतों के बाद गठित की गई है और उस समिति में बहुत जाने माने काबिल लोग हैं। हालाँकि मेरे पास और भी ‘कोट्स’ हैं लेकिन मुझे आपकी मशीनरी की रिपोर्ट्स काफी अच्छी लगी हैं इसलिए यदि आप में और समिति में तालमेल बैठ जाए और अगर वे आपकी टेक्नोलॉजी रिकमेंड कर दें तो मुझे खुशी होगी… आप समझ रहे हैं न में क्या कह रहा हूँ!?”

– “ऑफ कोर्स कमिश्नर! में अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा।” हडसन चलने को हुआ।

– “और मिस्टर हडसन!”

हडसन मुड़ा, “यस!”

चललादोरई का इरादा हुआ कि वो हडसन को शाम को ‘ड्रिंक्स’ के लिए इन्वाइट करे लेकिन फिर ये सोच कर कि इसके लिए अभी जल्दी है उसने इरादा छोड़ दिया। बोला, “नई नई… ठीक है…। आप कल फैक्ट्री विजिट कर लीजिए फिर मिलते हैं।”

दूसरे दिन इन्क्वायरी कमिटी ने हडसन को शर्मा से मिलवाया, अखबार की खबरें दिखाईं, बदबू के कारण ‘बीमार’ पड़ गए आस पास के दो-तीन रहवासियों से मिलवाया और अपने दो दिनों की ‘छान-बीन’ का ब्यौरा दिया। उसके बाद हडसन को फैक्ट्री के दौरे पर ले जाया गया। उसे एक निश्चित दूरी पर; डंप’ किए गए बड़े बड़े कचरे के ढेर दिखाए गए। हडसन ने बदबू सूँघने की कोशिश की। फिर उसने कचरे के बहुत करीब जाकर जैसे नाक ही तो अड़ा दी और फिर एक लंबी साँस ले कर समिति वालों की तरफ मुड़ कर पूछा, “बदबू कहाँ है?…। यहाँ का वातावरण तो एकदम साफ है।” समिति वालों और बदबू से ‘बीमार’ पड़ चुके लोगों ने बेहद ऐतराज जताया। हडसन ने शर्मा की तरफ मुड़ कर पूछा, “क्या जादू करते हैं आप मिस्टर शर्मा! मैंने जिंदगी में कचरे के इतने बड़े बड़े ऐसे ढेर नहीं देखे जो बदबू न मारते हों।”

इन्क्वायरी समिति वाले और ‘बीमार’ रहवासी बगलें झाँकने लगे। शर्मा हडसन को बदबू दूर करने के लिए कचरे पर अपने प्रचीन विद्या से निकाले गए छिड़काव के बारे में समझाने लगा। हडसन इस फॉर्मूले को जानने की जिद करने लगा।

कमिटी मेंबरों ने कमिश्नर को खबर दी। कमिश्नर ने नीला शेट्टी को फोन किया। शेट्टी ने फौरन प्रेस कान्फ्रेंस बुलाई। कान्फ्रेंस में पत्रकारों को बताया गया कि पर्यावरण के अंतरराष्ट्रीय एक्सपर्ट ने भी कचरा फैक्ट्री से उठती बदबू महसूस की है जो उसके हिसाब से भी आसपास के लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। प्रेस वालों को इन्क्वायरी समिति के साथ खड़े हुए हडसन की तस्वीरें वितरित की गईं और उसके बाद गर्मी के मद्देनजर पहले उन्हें ‘चिल्ड बियर’ और कबाब सर्वे किए गए और फिर उनके लिए एयरकंडीशंड हॉल में लंच सर्व किया गया। यह सारा इंतजाम पास के एक बैंक्वेट हॉल में किया गया था जिसका जिम्मा और खर्च बिल्डर सुनील घारे ने उठाया था। जिस समय ये कान्फ्रेंस हो रही थी हडसन, शर्मा और समिति मेंबर्स कचरा फैक्ट्री में ‘राइस प्लेट’ (खाने की थाली) खा रहे थे। दोपहर को हडसन चललादोरई के दफ्तर गया।

– “मेरा ख्याल है आपको भी फैक्ट्री नागवार गुजरी।” कमिश्नर ने टोह ली।

– “बिलकुल इसके उलट कमिश्नर! वो शर्मा शख्स बहुत अक्लमंद आदमी है। वह बहुत खूबी से इस प्रोजेक्ट को चला रहा है और किन बेहूदा लोगों ने आपसे बदबू उड़ने कि शिकायत कर दी? वहाँ तो कोई बदबू नहीं है। इट्स प्योर ऑक्सीजन देयर!”

– “आप उन लोगों से नहीं मिले जो बदबू की वजह से बीमार पड़ गए थे?” चललादोरई ने कागज समेटते हुए हाथ रोके और भौं सिकोड़ कर पूछा।

– “हाँ, आए थे दो तीन लोग जो ऐसा कहते थे लेकिन वे मुझे आसपास के कुछ दादा-टाइप लोग लगे जिनका मुझे नहीं लगता कि विश्वास किया जा सकता है।”

– “तो आपका कहना क्या है?”

– “मेरा ख्याल है कि अगर आप हमारी मशीन लेना चाहते हैं तो बेशक लीजिए। मैं यहाँ आपके पास इसीलिए आया हूँ। लेकिन अगर मैं आपकी जगह होता तो मैं जो चल रहा है वही चलने देता क्योंकि ‘ए’ ये बहुत किफायती विकल्प है, ‘बी’ इसे बहुत कम कामगारों के साथ बहुत अच्छी तरह मैनेज किया जा रहा है और ‘सी’ ये आपके शहर को बगैर किसी महँगे खर्च के साफ रखे हुए है।”

कमिश्नर ये सुनने के लिए तैयार नहीं था लेकिन वो सुनता रहा। उसने केवल इतना कहा कि वह हडसन को फोन करेगा। हडसन चला गया। अखबार जो बदबू की खबरें छापते वे ‘लोकल’ और मराठी में होतीं जो कि हडसन पढ़ना तो छोड़िए देख भी नहीं पाता। ‘राष्ट्रीय’ कहलाए जाने वाले अंग्रेजी अखबारों के लिए यह एक ‘उपनगरीय’ और ‘छोटी सी’ खबर थी जिसका उन्होंने ‘नेशनल’ पाठक के लिए छापने का कोई औचित्य नहीं समझा।

बीच रात में एक फोन ने हडसन की नींद तोड़ी।

– “हाय हडसन! जेम्स! जेम्स विलियम्सन टेक्सास से।”

– “ओह हाय जेम्स!”

– “हडसन आप हमारा प्रोजेक्ट बेचने के लिए रखे गए हैं न कि हमारे खिलाफ काम करने के लिए।”

– “मैं समझा नहीं।”

– “वेल! कमिश्नर अगर सुनना चाहता है कि फैक्ट्री से बदबू उठ रही है और इसी कारण वह हमारी मशीनें खरीदना चाहता है तो जो वो सुनना चाहता है तुम्हें वह कहने में प्रॉब्लम क्या है? आखिर हमें कॉन्ट्रैक्ट चाहिए और उसके लिए अगर यही रास्ता है तो यही रास्ता सही।”

हडसन की नींद उड़ चुकी थी। उसने सीटी बजाने की शक्ल में होंठ सिकोड़े, अंदर हवा खींची, अपने बाएँ हाथ से जरा गर्दन सहलाकर अपने को सँभाला और कहा, “देखो जेम्स! मैं पर्यावरण का एक्सपर्ट हूँ और पर्यावरण इस दुनिया की सारी जड़ और चेतन चीजों का सम्मिलित स्वरूप है और उसके साथ इसलिए गद्दारी नहीं की जा सकती कि दो एक लोग अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। जो प्राकृतिक तौर पर सही है, सामाजिक तौर पर सही है, आर्थिक तौर से सही है उसे सही मानना ही पड़ेगा !”

– “डोंट गिव मी बुल शिट हडसन! तुम जिसे जानते ही नहीं उसके प्रति तुम जवाबदार कैसे हो सकते हो? और पैसे की तो तुम्हें भी जरूरत है!”

– “सवाल जानने और न जानने का नहीं है जेम्स। अगर मुझे लोग एक्सपर्ट मानते हैं तो मेरी जिम्मेदारी है कि मैं सही और निष्पक्ष होऊँ। और रही पैसे की बात तो मुझे आज भी अपनी बियर और ‘स्टेक’ के लिए ठीक ठाक मिल जाता है।

– “देखो या तो तुम वो करो जो में कह रहा हूँ… या मेरी लाइफ से दफा हो जाओ। आखिरी मौका देता हूँ… कल तुम कमिश्नर के पास जाकर वो कहो और करो जो कि वो चाहता है। समझे!”

– “जेम्स! यहाँ रात के एक बज चुके हैं। ‘कल’ तो शुरू ही हो गया है और मैं कहीं नहीं जा रहा… ठीक है! …गुड नाईट जेम्स!” हडसन ने फोन पटक दिया। जेम्स ने उधर भद्दी सी गाली बकी और इस सोच में पड़ गया कि इस आखिरी वक्त पर वो अपने काम के लिए किसे और कैसे ढूँढ़े। हडसन वापस लेटकर सोने की कोशिश करने लगा।

बदबू उठने की खबर तूल पकड़ती गई। कमिटी वालों ने भी अपनी रिपोर्ट में बदबू और उससे पैदा हुई बीमारियों का जिक्र जोर शोर से किया। जेम्स ने चललादोरई को फोन किए। नीला शेट्टी ने सुनील घारे को अपना हिमायती बना लिया। कमिश्नर ने शर्मा को अपने ऑफिस में बुलाया।

– “शर्मा! आखिरी मौका देता हूँ…। तुम चाहो तो अब भी फैक्ट्री चला सकते हो। करना तुम्हें बस इतना है कि अपनी ये दकियानूस मशीनें हटा कर इस अमेरिकन कंपनी की मशीनें लगा दो। नीला शेट्टी भी साथ देने को तैयार हैं और इन मशीनों के साथ ये बदबू का इशू भी समाप्त हो जाएगा।”

– “लेकिन हम सब जानते हैं कि बदबू तो वहाँ है ही नहीं। बेवजह इसका इशू बनाया जा रहा है। और जब आप जानते हैं कि सब ठीक ठाक है तो फिर आप देश की इतनी विदेशी मुद्रा क्यों बर्बाद करना चाहते हैं?”

– “प्रॉब्लम है शर्मा!,” चललादोरई मेज पर मुट्ठी पटक कर ‘है’ पर जोर दे कर चिल्लाया, ” प्रॉब्लम है… और लोग परेशान हैं। तुम्हारी नाक अगर बदबू नहीं सूँघ सकती और अगर तुम बीमार नहीं पड़ते तो अपने आप को किसी डाक्टर को दिखाओ! …एंड डोंट…” चललादोरई ने अपने काँपते हाथ की थरथराती हुई अनामिका दिखा कर गुस्से में कहा, “डोंट टीच मी मुझे क्या खर्च करना चाहिए और क्या नहीं। मैं सरकार द्वारा नियुक्त किया गया कमिश्नर हूँ और मैं जनता हूँ मेरी पब्लिक के लिए क्या ठीक है और क्या नहीं।”

– “मिस्टर चललादोरई!”, शर्मा ने गला साफ करते हुए कहा, “आप सब लोग भ्रष्ट आचरण में लगे हुए हैं। नीला शेट्टी को पाँच लाख भारतीय रुपये चाहिए, आप यू.एस. डॉलर्स में अपना कट देख रहे हैं। बिल्डर सुनील घारे इसमें लगा है कि वह अपने फ्लैट्स की कीमत कैसे बढ़ा दे…। यह सब कुछ शहर की जनता के हित के खिलाफ है। मैं ईमानदार हूँ और ईमानदारी नहीं छोड़ूँगा। मैं आपकी गंदी चालों में आने वाला नहीं हूँ।”

– “गेट आउट!” चललादोरई अपनी कुर्सी पीछे धकेल कर पूरी ताकत से चिंघाड़ा। ऐसे कि कॅबिन के बहार बैठा उसका चपरासी अपनी तंबाकू रगड़ना छोड़ कर दौड़ अंदर आ गया। शर्मा कॅबिन के बाहर निकल गया।

नीला शेट्टी जल्दी में थी। पैसा तो हालाँकि उसे बिल्डर सुनील घारे से मिल रहा था लेकिन नीला ने अपने चुनाव क्षेत्र के लिए कुछ किया नहीं था इसलिए उसके जीतने के आसार कम थे। खास तौर से इस बार जब एक पढ़ा लिखा जन-प्रिय नौजवान उनके सामने प्रत्याशी था। वह नीला को मात दे सकता था। लेकिन इलेक्शन किसी भी प्रजातंत्र में वे जीतते हैं जो लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर देते हैं। चुनाव में अभी तीन सप्ताह थे। नीला शेट्टी ने ‘बदबू’ के मुद्दे पर फैक्ट्री से लगा कर टी.एम.सी. दफ्तर तक एक जबरदस्त जुलूस नकाला। रास्ते भर लोग नारे लगाते रहे – “तुम जागो स्वच्छ हवा में, हम मरते हैं बदबू में”।

अखबारों में हेड लाइन छपी – “कचरा फैक्ट्री की बदबू के खिलाफ जन-आक्रोश!” और इस बार मामला ऐसा बना कि यह केवल लोकल खबर तक ही सीमित नहीं रहा। अंग्रेजी अखबारों को भी खबर छापनी पड़ी और टी.वी. पर भी मोर्चा दिखाया गया। और टी.वी. की चौबीस घंटा खबरिया चैनलों की तो तासीर ही है कि वे छोटी से छोटी खबर के क्लिप को बार बार लगातार हर आधे आधे घंटे पर दिखाते रहते हैं। शहर के मतदाताओं का रुझान नीला शेट्टी की तरफ हो गया। सुनील घारे ‘हालात का मारा’, ‘बेचारा’ करार दे दिया गया। खबर ऐसी फैली कि दिल्ली के ‘पावर-गलियारों’ तक पहुँच गई। वहाँ से कमिश्नर ऑफिस में फोन आया।

– “सारा मामला संज्ञान में लिया है सर!,” चललादोरई ने फौरन कुर्सी से खड़े हो कर बड़े अदब से समझाया, “बदबू हटाने के लिए एक अमेरिकन कंपनी से भी बात चल रही है… एक्सपर्ट समिति ने कहा है कि उनकी मशीनें लगाने से सब ठीक हो जाएगा।”

– “इस मामले की बाबत फाइलें आप यहाँ भेज दें। मंत्री जी मामले का जायजा लेना चाहते हैं। और तब तक इस पर सारी कार्यवाही रोक दें।” मंत्री के स्पेशल पी.ए. ने ठंडी आवाज में कहा।

एक ब्यूरोक्रेट ने जिस बात को अपने लिए ‘अपॉरचुनिटी’ में तब्दील किया था वही अब मंत्री जी के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी में ढल गई। सरकार का कार्यकाल अभी अगले दो साल और था। दो साल में तो पब्लिक क्या क्या भूल जाती है और क्या क्या तो किया जा सकता है! जेम्स क्या उस जैसी दुनिया में तमाम एजेंसियाँ होंगी जिनसे ‘बात’ की जा सकती है! ‘डॉलरों’ की ही तो बात है… वो चाहे पश्चिम से आएँ या पूर्व से!

– “एक बात और”, पी.ए. ने आगे कहा, “कचरा फैक्ट्री का काम फौरन बंद करने के आदेश पारित कीजिए। और जब तक मंत्री जी निर्णय न ले लें स्टेटस को बनाए रखिए।”

– “लेकिन तब तो शहर में कचरा सड़ेगा…। मुश्किल हो जाएगी,” चललादोरई ने सर पर हाथ मारा और दुखी हो कर कहा।

– “आप कमिश्नर हैं… आप इस समस्या का कोई न कोई समाधान निकाल सकते हैं। आफ्टर-आल! ठाणा-बंबई है क्या – कचरे का अंबार ही तो है!” लाइन कट गई।

चललादोरई ने कोहनियाँ मेज पर टिकाकर सर अपनी उँगलियों से सँभाला, दस पंद्रह अच्छी खासी गालियाँ बकीं – मंत्री को, नीला को और अपने भाग्य को। फिर उसने चपरासी बुलाने के लिए घंटी बजाई और अपने जूनियर कमिशनरों और चीफ इंजीनियरों की मीटिंग बुलाने का फरमान दिया। सवाल था कि कचरे का अब क्या किया जाए।

– “घोड़बंदर सर!” सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट डिपार्टमेंट के इंचार्ज ने सुझाया।

– “घोड़बंदर क्या?” चललादोरई ने चश्मा नाक के नीचे करके पूछा।

– “आप फिक्र न कीजिए शहर के सारे कचरे का डिस्पोजल हो जाएगा।”

– “क्या मतलब?”

– “घोड़बंदर क्रीक है न सर।”

– “वहाँ कहाँ?”

– “क्रीक के तीनों तरफ इतने बड़े एरिया में मैंग्रोव्स फैले हैं कि अगर शहर का सारा कचरा दस साल तक भी वहाँ डंप करते रहो तो भी जगह बचेगी।”

– “कोई कंबख्त पर्यावरण वाला आड़े आ गया तो?”

– “कौन आएगा? …सब तो अपना ही खाते हैं।”

– “घोड़बंदर क्रीक इज ए गुड आईडिया सर।!” गार्बेज वैन्स और ट्रेलर वाले इंचार्ज असिस्टेंट कमिश्नर ने कहा।

फैसला ले लिया गया।

चललादोरई की समझ में जो नहीं आया वो यह कि कचरा भरने वाले हर ट्रक/ट्रेलर कि बिलिंग होती है और कौन सा ट्रक/ट्रेलर कितनी बार डिलीवरी कर सकता है इसकी कोई पाबंदी नहीं होती – याने एक ट्रक की दिन में दस बार भी बिलिंग दिखाई जाए तो भी कोई पूछने वाला नहीं है। सुझाव की जो दूसरी वजह थी वो यह कि ठाणा में तमाम नई नई कॉलोनी बन रही थीं और बिल्डरों को ‘भरती’ (फिलिंग) चाहिए थी और उसके लिए ये कचरा उन्हें मिट्टी से कई गुना सस्ता पड़ेगा और वे इसे हँसी खुशी खरीद लेंगे… और इस खरीद का पैसा सरकारी खाते में नहीं, टी.एम.सी. अफसरों की जेब में जाएगा। इन दोनों ही बातों से छक कर पैसे की कमाई हो सकेगी और स्टाफ में आपस में बाँटने के बाद भी हर एक के हिस्से में लाखों बैठेंगे!

शहर में जब इलेक्शन के नतीजे आए तो नीला शेट्टी लंबे अंतर से विजयी हुई। चललादोरई को बड़ी बेआबरू तौर से ग्रामीण क्षेत्र विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया। सुनील घारे ने अपने लक्जरी फ्लैट्स की बुकिंग अपने सोचे हुए रेट से तीन गुना बढ़ा कर शुरू की। टी.एम.सी. के जॉइंट कमिशनरों और चीफ इंजीनियरों ने नई नई कारें खरीद लीं। शर्मा ने फैसले को अदालत में चुनौती देना चाहा लेकिन कोई ढंग का वकील उसका केस लेने को तैयार नहीं हुआ – “तुम्हारा केस कमजोर है… इसमें तुम्हारे फेवर में तो कोई सुबूत है ही नहीं!’। नीला शेट्टी पिछली अक्षय तृतीया को सुनील घारे द्वारा ‘गिफ्ट’ किए हुए डुप्लेक्स पेंट हाउस में शिफ्ट कर गई।

कचरा फैक्ट्री वाली जगह बर्बाद पड़ी है। अब वहाँ झोपड़ियाँ निकाल आई हैं और उसके बजबजाते मलबे और कीचड़ में सूअर बहुत पैदा हो गए हैं।

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कचरा फैक्ट्री – Kachara Factory

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