कभी नहीं था आसान | प्रफुल्ल शिलेदार
कभी नहीं था आसान | प्रफुल्ल शिलेदार

कभी नहीं था आसान | प्रफुल्ल शिलेदार

कभी नहीं था आसान | प्रफुल्ल शिलेदार

एक कवि
दंगे में
भरे रास्ते के बीचोबीच
गर्दन सीधी कर खड़ा है
दंगाई उसके बारे में कोई राय नहीं बना पा रहे हैं
भीड़ ने उसे घेर रखा है
सवालों की बौछार हो रही है उस पर
कवि को कुछ याद नहीं आता
अपना-पराया कुछ नहीं सूझता
अपनी जाति भूल गया है वह
धर्म के बारे में कुछ बता नहीं पाता
खोद-खोद कर पूछने के बाद हताश हो गए दंगाई
कवि कहता है
वह अभी-अभी चित्रे-मुक्तिबोध-नेरूदा पर
भाषण देकर लौट रहा है
वह बोलने लगता है कविता की पंक्तियाँ
दंगाई भौंचक्के हैं
कवि के माथे पर जख्म है
उससे खून सी बहती भाषा
तोड़ती है व्याकरण के नियम
तोड़ती है संप्रेषण का प्रयोजन
वह निरर्थ निराकार निःशब्द होती जा रही है
जीवन और मृत्यु की सीमा पर खड़ा कवि
मनुष्यता और पशुता के संधिकाल में जी रहा है
कविता लिखने जैसा धूमिल काम कर रहा है
पर उसकी ओर ध्यान देने का वक्त नहीं है किसी के पास
दंगाई कभी भी कर सकते हैं सिर कलम
यह जानने के बावजूद
रास्ते के बीचोंबीच
अपनी कविता के बारे में
खड़ा है गर्दन ऊँची कर
चारों ओर निहारते हुए दर्ज कर रहा है
दंगे के ताने-बाने
जान चुका है वह
कभी नहीं रहा आसान इस पृथ्वी पर जीना
प्रकृति की लय पर अपना गाना गाना
समष्टि के महाकाय रथ पर सवार होना
नए निर्माण के लिए
खुद ही लिखे सूक्तों की इमारत
ढहाते जाना
गर्दन सीधी रख कर
दर्ज करते जाना
सोखना
फिर भाषा में बह निकलना।

(मराठी से हिंदी अनुवाद स्वयं कवि के द्वारा)

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