कभी-कभी अक्ल मुझ पर कब्जा कर लेती है | ईमान मर्सल
कभी-कभी अक्ल मुझ पर कब्जा कर लेती है | ईमान मर्सल

कभी-कभी अक्ल मुझ पर कब्जा कर लेती है | ईमान मर्सल

कभी-कभी अक्ल मुझ पर कब्जा कर लेती है | ईमान मर्सल

रोशनी कितनी आत्ममुग्ध है
छत पर, कोनों में, टेबल पर फैली हुई
प्रसन्नताओं ने सबको नींद के मुहाने पर खड़ा कर दिया है
निस्संदेह यह मेरी आवाज नहीं है
कोई और गा रहा है
उस काले परदे के नीचे से जिस पर मैं सहारे के लिए झुकी हूँ

नीचे देखूँगी तो पाऊँगी
कई कीड़े हैं जो दरवाजे की ओर भाग रहे
और मेरी निर्वस्त्र देह पर चढ़ रहे
मैं कैसी दिख रही, इस पर बिल्कुल ध्यान न दूँगी
ताकि कोई और भी ध्यान न दे इस पर

पुरुष देश के भविष्य की चर्चा कर रहे
उनकी पत्नियाँ घर की मालकिन की मदद कर रहीं
बिल्लियाँ ताक रहीं जूठन का जश्न
और छत पर टँगी मकड़ियाँ भी
कोई झमेला नहीं कर रहीं

जान पड़ता है इस परिवार के बच्चों को मैं पसंद आई
कागज की एक कश्ती उन्हें देने के बाद
मैं यह नहीं समझा पाई
कि पानी से भरा ताँबे का यह टब
कोई समंदर नहीं

‘तभी गहरा सन्नाटा पसर जाता है’
अरब के ये बद्दू बंजारे बहुत पहले से जानते हैं यह बात
कि शब्द उड़ सकते हैं
और उन्हें दबाया नहीं जा सकता किसी वजन से

और जाने क्या बात है कि
नए खामोश श्रोताओं के आगे
अपनी पुरानी क्रांतियों की सफाई देने के अलावा
मैंने क्रांतिकारियों को कुछ और बोलते नहीं सुना

पैगंबर अपनी विवशताओं से चुप हो जाते हैं
जैसे-जैसे वे उसके और करीब पहुँचते हैं
जिसने उन्हें भेजा है

दिक्कत यह नहीं कि उनका मुँह कैसे बंद किया जाए
बल्कि यह है कि जब कहने को कुछ नहीं होगा
वे अपने हाथ रखेंगे कहाँ

एक दिन अक्ल मुझ पर कब्जा कर लेगी
और मैं दावतों में जाना बंद कर दूँगी
अपनी आजादी का हल्ला बोल शुरू करूँगी तब
मैं तुम्हारे कानों की कर्जदार नहीं रही अब

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *