कबाड़ | नरेंद्र जैन
कबाड़ | नरेंद्र जैन

कबाड़ | नरेंद्र जैन

कबाड़ | नरेंद्र जैन

यहाँ से रोज 
गुजरते हैं कबाड़ी 
वे लगाते हैं गुहार 
अखबार की रद्दी और शराब की 
खाली बोतलों के लिए 
मैं 
हर बार सोचता हूँ 
रद्दी अखबार ही नहीं है 
रद्दी कागज ही नहीं है 
रद्दी यह समय है 
इसे किस तराजू में तौलेगा वह 
रद्दी आवाजें जो भोंपुओं से 
लगातार सुनाई देती 
रद्दी उन्माद 
और रद्दी धर्मांधता 
रद्दी प्रार्थनाएँ जो फि़ल्मी धुनों में बंधी 
रद्दी लोग जो 
सभ्यता को करते आहत 
इस कबाड़ी का हाथठेला बहुत 
छोटा है 
और रद्दी सामान बहुत ठहरा

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