जीवन वीणा | प्रेमशंकर मिश्र
जीवन वीणा | प्रेमशंकर मिश्र
जीवन वीणा के तारों से खेल सको तो खेलो योगी।
शब्द-शब्द अक्षर-अक्षर में
कोयल स्वर क्या कुछ कह जाता।
इच्छा, ज्ञान, कर्म का समरस
कैसे हो, इनमें क्या नाता
उस चकोर की चंचल चाहें अंतरिक्ष से ठोकर खातीं
और चाँद अपनी शीतलता से पावक बरसाता जाता।
अंतर के भीषण निदाघ पर सावन वारि उड़ेलो योगी।
जीवन…।
सत्यासत्य अनश्वर नश्वर
क्या मधु यौवन क्या चिर बिछ़ुड़न।
चिर सुहाग की कुमकुम लाली पर
धूमिल अलकों का नर्तन।
सिंर पर घोर अंधेरा फिर भी
मन मयूर नाचे क्यों रुनझुन
यह जग भ्रम या भ्रम ही जग है
कौन कहे यह कैसा सर्जन
धती का यह हृद-स्पंदन निज कर धरो टटोलो योगी।
जीवन… ।
मधु आया वन कलियाँ जागीं, जागीं जीवन की सब चाहें
पावस की पहली धन पांती, देख किसी की जगीं कराहें
सूखें होठों की प्यासों को दु:ख कहती है मूरख दूनिया
चातक स्वाती की परिभाषा करता ले ले मधुरिम आहें।
मेरे भी आकुल अंतर के तुम अनुभव बन बोलो योगी,
जीवन वीणा के तारों से खेल सको तो खेलो योगी।