हत्या और आत्महत्या के बीच | प्रमोद कुमार तिवारी
हत्या और आत्महत्या के बीच | प्रमोद कुमार तिवारी

हत्या और आत्महत्या के बीच | प्रमोद कुमार तिवारी

हत्या और आत्महत्या के बीच | प्रमोद कुमार तिवारी

हत्या और आत्महत्या के बीच
कितनी चवन्नियों का फासला होता है?
क्या इन दोनों के बीच अँट सकता है
एक कमीज का कॉलर
या घिघियाहट से मुक्त आवाज
कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे
कि सवाल ही गलत है दोनों में कोई फर्क नहीं!
खैर, हत्या के लिए जरूरी है आत्म का होना
या इसकी अनुपस्थिति मुफीद है इसके लिए?
आखिर कितना फर्क होता है
हत्या और आत्महत्या के बीच
साहूकार की झिड़की का
भूख से बिलबिलाते बच्चे की सिसकी का
बेमौसम बारीश का,
दूर देश बैठे किसी कंपनी-मुखिया की मुस्कान का,
या फिर उन कीड़ों का
जिन पर चाहे जितनी दागो
सल्फास की गोलियाँ
वे पलट कर खुद को ही लगती हैं।

इन गिरवी विकल्पों के समय में
क्या बची है
हत्या और आत्म दोनों को चुनने की गुंजाइश?
पूछा तो ये भी जा सकता है
कि आईपीएल के एक छक्के में कितने आत्म खरीदे जा सकते हैं
या फिर, कोकाकोला के एक विज्ञापन से
कितनी हत्याओं की दी जा सकती है सुपारी।

बहरहाल सवाल तो यह भी हो सकता है
कि सवाल चाहे स्कूल के हों या संसद के
उनके जवाब के लिए आत्म का होना जरूरी है
या न होना?
दोस्तों, इस बेमुरव्वत समय में
क्या तलाशी जा सकती है
थोड़ी सी ऐसी जमीन
जहाँ खड़ा हुआ जा सके
बिना शर्माए।

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