एक गंध छोड़ गए | ब्रजराज तिवारी
एक गंध छोड़ गए | ब्रजराज तिवारी

एक गंध छोड़ गए | ब्रजराज तिवारी

एक गंध छोड़ गए | ब्रजराज तिवारी

फागुन तुम गए, किंतु एक गंध छोड़ गए।
कल जो थे बागों में फूल खिले।
कल जो थे क्षण दो क्षण प्यार मिले।
वह मन को साध आज द्वार-द्वार भटक रही,
फागुन तुम गए एक और दर्द जोड़ गए।
कल तक मुझसे अनगिन थे सपने टूटे,
कल तक मुझ से अनगिन थे अपने छूटे।
वह टूटी डोर, अभी जोड़ नहीं पाया था,
फागुन तुम गए एक और सपन-तोड़ गए।
जो भी आया मुझको दूर से निहार गया,
जो भी आया सोया – दर्द ही उभार गया,
चंचल लहरों को अभी छुवा नहीं था मैंने
फागुन तुम गए, एक और लहर मोड़ गए।

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