एक दिन | अमिता नीरव
एक दिन | अमिता नीरव

एक दिन | अमिता नीरव – Ek Din

एक दिन | अमिता नीरव

जून निकल रहा है और मेरी बेचैनी बढ़ने लगी है। हर साल इन दिनों यही होता है। आखिरकार इन्हीं दिनों उच्च शिक्षा में तबादले जो होने होते हैं। पता नहीं मैं इतना क्यों घबराती हूँ, तबादलों से… या कि किसी भी तरह के बदलाव मुझे असहज कर देते हैं? क्या उम्र बढ़ने पर ऐसा ही होने लगता है? सौम्य से मैं इस तरह की चर्चा नहीं कर सकती हूँ, ऐसा कहते ही वे मुझे झिड़केंगे… क्या हमेशा उम्र-उम्र की बात करती हो? मुझे नहीं पता था, तुम इन सबको लेकर इतनी कांशस होओगी।

यदि पता होता तो…- मैं माहौल हल्का करने की गरज से चिढ़ाती हूँ, लेकिन देखती हूँ कि सौम्य जरा भी नर्म होने के लिए तैयार नहीं हैं – पता होता तो तुमसे शादी करने से पहले सोचता। तुम अपनी उम्र के बारे में कहती हो, तो क्या मुझे नहीं लगता है? यार 35 कोई उम्र होती है?

फिर खुद ही थोड़ा फ्लर्ट करते हैं – तुम्हें कौन कहेगा कि तुम 35 की हो और तुम्हारा 10 साल का बेटा है… यदि हम तुम्हारे साथ न हो तो कोई भी तुमसे शादी करने के बारे में सोच सकता है।

चलो-चलो रहने दो… कुछ कहो तो थोड़ा रिजनेबल होकर तो कहो… ज्यादा मक्खन पॉलिश अच्छी नहीं लगती है। – अबके मैं थोड़ी झिड़की और थोड़ी सुलह का संकेत देती हूँ। वैसे सौम्य कुछ गलत भी नहीं कहते हैं। क्या मैं देख नहीं पाती हूँ, अपने साथ काम करती महिलाओं की आँखों में उतर आती ईर्ष्या, पुरुषों की जबान से गिरने-गिरने को होती प्रशंसा और आँखों से टपकती… जाने भी दो… ऋचा हमेशा कहतीं है, दीदी आपकी आँखों की गंभीरता से ही सब कुछ ठीक रहता है, नहीं तो…!

नहीं तो… क्या? तू आजकल बहुत बोलने लगी है। – मैं उसे झूठमूठ ही धमकाती हूँ।

हाँ ठीक ही तो हैं, 35 कोई उम्र होती है। अब ऋषभ यदि 10 साल का हो गया है, तो इसका ये मतलब तो नहीं कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ।

खैर, तो शायद डर घर के डिस्टर्ब हो जाने का होता होगा। या फिर खुद के अकेले रहने का या फिर… पता नहीं क्या… लेकिन बस बेचैनी है तो है…। सौम्य के सामने अपनी बेचैनी का पता दो तो, सीधे ही सुझाव मिलेगा, ऐसा होगा, तब देखेंगे… छुट्टी ले लेना…। अब खुद तो 10 घंटे काम करते हैं, ऋषभ भी स्कूल जाता है, मैं घर में करूँ क्या? वो तो पूछेंगे, बाकी औरतें क्या करती हैं?

बहुत तो समझते हैं, फिर भी बहुत कुछ बाकी है। अब मैं घर-गृहस्थी, साड़ी-गहने और सास-ननद की बातें करने के लिए किसी किटी क्लब की सदस्य नहीं बन सकती। पढ़ना भी तब ही हो पाता है, जब थोड़ा-थोड़ा कर पढ़ो। जिस दिन यूँ लगे कि अब पढ़ना ही पढ़ना है तो… किताबों से ही कोफ्त होने लगे। जब दिनभर ही फुर्सत हो तो घर का काम भी करने में मन नहीं लगता। फिर हर दिन के कामकाज के अतिरिक्त घर में ज्यादा काम साफ-सफाई का ही रहता है, अब ये तो नहीं हो सकता ना कि कल ही साफ कर जमाई अलमारी को आज फिर बिखेरूँ और फिर जमाऊँ… ये बेगारी होने से तो रही… लेकिन सौम्य समझेंगे ये सब…? तो फिर क्या करूँ?

अब जब तक अंतिम रूप से ट्रांसफर लिस्ट आउट नहीं हो जाती है, इसे तो सहना ही है। कॉलेज शुरू हो तो अरुण को फोन करूँ। उसे फोन करो तो वह भी यही कहेगा… दीदी, लिस्ट आने तो दो, मैं सब सँभाल लूँगा। तो फिर क्या करूँ? सहना ही होगा… बस आधी रात को खुली नींद में यही उधेड़बुन चल रही थी। ऋषभ थोड़ा कुनमुनाया तो उसकी पीठ पर हाथ रखा। थोड़ी देर उसी असमंजस में बैठी रही। फिर धीरे से चादर हटाई और स्लीपर में पैर फँसा कर बहुत हौले-से कमरे का दरवाजा खोला और बाहर निकल आई। जून खत्म होने पर है, मौसम बदल रहा है। चार दिन से थोड़ा-थोड़ा रुक-रुक कर पानी बरस रहा है। आज दिन में ही थोड़ी धूप निकली थी, लेकिन शाम होते-होते बादलों की आवाजाही शुरू हो गई। आखिर आषाढ़ भी आधा निकल गया है। बाहर बूँदाबाँदी हो रही थी। बॉलकनी में कुर्सी लगाकर बैठ गई, यहाँ आकर थोड़े सुकून का अहसास हो रहा था, बेचैनी थोड़ी कम हुई थी। पता नहीं कितनी देर यूँ ही बैठी रही थी, जब सौम्य ढूँढ़ते हुए बाहर आए तब इस बात पर ध्यान गया कि फुहारें तेज बारिश में बदल चुकी है।

क्या हुआ? यहाँ क्यों बैठी हो? नींद नहीं आ रही है क्या? – सौम्य ने चिंतित होकर पूछा।

कुछ नहीं दिन में फुर्सत होती है तो सो लेती हूँ, फिर रात में गहरी नींद नहीं आ पाती है। बहुत देर से जाग रही थी, बारिश की आवाज सुनी तो बाहर आ गई। – मैंने उन्हें समझाते हुए कहा।

पिछले साल राखी पर माँ का दिलाया हुआ ग्रीन लहरिया पहना था। अपने ड्रेसिंग टेबल के ड्रॉवर में बिंदी वाले खाने में बहुत ढूँढ़ने के बाद मुझे कलर्ड बिंदी का पत्ता मिला था। बाल धुले हुए थे, तो यूँ ही कंघी कर ली थी। यूँ कंधे से थोड़ा नीचे उतरते बालों को भी खुला रखना मुझे सुविधाजनक नहीं लगता है, झटपट पोनी बाँध लेती हूँ। हाँ जिस दिन बाल धुले हो तो सूखने के लिए खुले छोड़ने पड़ते हैं, फिर भी सूखे नहीं कि तुरंत बाँध लेती हूँ… यूँ लगता है कि आजादी बाधित होती है। पता नहीं क्यों मन हुआ कि आज ग्रीन बिंदी ही लगाऊँ, इसलिए बहुत मशक्कत करके ढूँढ़ी। बिंदी लगाकर खुद को आईने में देखा तो लगा कुछ ज्यादा हो रहा है। मैं कॉलेज जा रही हूँ, कहीं शादी या किसी फंक्शन में नहीं। पता नहीं क्यों अपने दिखने को लेकर मैं थोड़ी ज्यादा ही कांशस रहती हूँ। कोई नोटिस न करें, तो लगता है कि बच गए… लेकिन जरा-सा भी नोटिस की गई तो दिन भर कुछ अटका-सा लगता है। इसलिए कपड़ों के रंगों को छोड़कर खुद पर और कुछ भी अतिरिक्त लगने नहीं देती हूँ। तो फिर हरे रंग की बिंदी हटाकर वही ब्राउन बिंदी लगाई और निकल पड़ी। आज कॉलेज का पहला दिन जो है। दिन भर एडमिशन की सरगर्मी रही। इसके बीच में ही समय निकाल कर छुट्टियाँ कैसे गुज़री इस पर भी बातचीत होती रही। फिर बातचीत आकर उसी असुविधाजनक विषय पर रुक गई… ट्रांसफर…। इस बार कॉलेज में ट्रांसफर का डर मेरे साथ-साथ ऋचा, मिसेस गुप्ता और महावीर जैन को भी है, हम चारों को ही इस कॉलेज में तीन साल से ज्यादा हो चुके हैं। मुझे एक राहत ये लगी कि चलो हम सारे एक ही कश्ती के मुसाफिर हैं।

जबसे सुना है कि लिस्ट तैयार हो गई, तब से पता नहीं कैसी तो टूटी-टूटी-सी नींद आती है और रात भर उटपटाँग सपने आते रहते हैं। आज तो हेडक्लर्क चौरसिया ने बताया कि लिस्ट आज रात को या फिर कल तो पक्के में निकल ही आएगी। हे भगवान, हे भगवान चौबीसों घंटे लगी रहती है। रात को जैसे ही लिस्ट निकली जिसका डर था वही हुआ। ट्रांसफर की खबर सुनते ही दिल बैठ गया। सौम्य ने सुना तो वो भी थोड़े परेशान दिखाई दिए।

अरुण को फोन करता हूँ। तुम तो छुट्टी की एप्लीकेशन दे दो। – सौम्य ने कहा।

अरे! अब आज तो रुको, कल करेंगे। उसे भी जो करना होगा, वो कल ही कर पाएगा ना… अब नौकरी कर रहे हैं तो इन चीजों से घबराने से क्या फायदा? फिर कोई दूर तो है नहीं, अरुण जिम्मेदारी से कर ही देगा, ज्यादा मुश्किल आएगी तो फिर सोचेंगे छुट्टी लेने के लिए… – मैं सौम्य को समझा रही हूँ, या खुद को… खुद ही समझ नहीं पा रही हूँ।

सुबह अरुण को फोन किया तो उसने कहा – मुझे पता है दीदी। मैं कोशिश कर रहा हूँ और हो जाएगा। आप चिंता मत करो, मुझ पर विश्वास करो।

लेकिन मैं क्या करूँ ज्वाइन करूँ या न करूँ? – मैंने बहुत हताश होकर अरुण से पूछा।

ज्वाइन तो कर ही लें, यूँ भी दूर ही कितना है? कुल 45 मिनट का तो रास्ता है। अब क्या है कि सरकारी काम है, आप तो जानती ही हैं। – उसने बात समेटी।

आखिरकार नए कॉलेज को ज्वाइन कर ही लिया। ऋचा का भी ट्रांसफर हुआ है, वो भी अप-डाउन कर रही है। हम दोनों साथ ही ट्रेन पकड़ते हैं, मैं पहले उतरती हूँ, उसे आधा घंटा और लगता है। धीरे-धीरे और भी अप-डाउनर्स से मुलाकात होती चली गई। कुछ तो कॉलेज का ही स्टाफ है खुद प्रिंसिपल भी हमारे साथ ही अप-डाउन करते हैं।

कुछ बैंक में काम करने वाली लड़कियाँ हैं। कुल मिलाकर एकाध महिला ही मेरी उम्र की है, बाकी चारों-पाँचों 24-26 साल की उम्र की लड़कियाँ है। वैसे ज्यादा असुविधा नहीं है। बस समय साधना पड़ता है, डेढ़ घंटे का समय एडजस्ट करने में शुरुआत में थोड़ी मुश्किल आई थी, धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। समय को बचाने की गरज से साड़ी को तिलांजलि दे दी। सलवार-कमीज पहनने लगी, 10 मिनट भी बचते हैं तो कितनी राहत हो जाती है, ये सिर्फ अप-डाउन करने वाली शादीशुदा महिला ही समझ सकती है। महीना भर हो गया अप-डाउन करते हुए… हर तीन-चार दिन में मैं या सौम्य अरुण को फोन लगा लेते हैं। कल रात को ही उससे बात हुई तो उसने दिलासा दिया और बताया कि – पैसा भी दे दिया है। मतलब अब आप निश्चिंत हो सकते हैं।

बस इसी निश्चिंतता में रात बड़ी गहरी नींद आई और सुबह 15 मिनट देर से नींद खुली। बहुत हड़बड़ी में नहा कर बाहर आई और रेलवे स्टेशन फोन लगाया तो एक राहत की खबर मिली कि ट्रेन आधा घंटा लेट है, चलो थोड़ा इत्मिनान है। जब स्टेशन पर पहुँची तो पता चला कि ट्रेन डेढ़ घंटा लेट हो गई है। सबको ही अपने-अपने दफ्तर लेट हो जाने की चिंता थी, लेकिन हम तो निश्चिंत थे, आखिर प्रिंसिपल जो हमारे साथ हैं। अब जिन्हें लेट होने की चिंता हो रही है, वे भी कर क्या सकते हैं? ट्रेन तो जब आएगी, तब ही आएगी ना…! एक-एक कर सारी महिलाएँ इकट्ठा हो गईं, महिला वेटिंग रूम में तो पैर रखने की भी जगह नहीं है, जंक्शन है तो यहाँ कई मुसाफिर अपने गंतव्य के लिए गाड़ियाँ बदलते हैं, इसलिए रातभर सफर कर अगली ट्रेन का इंतजार करती महिलाओं से पूरा वेटिंग रूम भरा हुआ है… हर तरफ बेतरतीबी से पड़ा सामान और जैसी जगह हो, उसी में खुद को एडजस्ट करके ऊँघती महिलाओं को अंदर ही छोड़कर हम सभी बाहर आ गए।

बैंच पर बैठ कर सारे बातों में मशगूल थे। बहुत देर से किसी के गाने की आवाज आ रही थी आश्चर्य है कि किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। ध्यान तो मेरा भी नहीं गया था, ये तो बाद में एक छोटी-सी घटना से रिकॉल हुआ। जैसे ही ट्रेन के आने का अनाउंसमेंट हुआ, हम सभी ने अपनी-अपनी सीट छोड़ दी। जहाँ हम जाकर खड़े हुए वहाँ फिर उसी तरह से गाने की आवाज आती रही और फिर आश्चर्य कि… हममें से किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया। आखिरकार पूरे प्लेटफार्म को कँपाती हुई धड़धड़ाती ट्रेन आ पहुँची। किसी भी तरह के खतरे का कोई सिग्नल नहीं मिला तो सभी रिजर्वेशन के डिब्बे में चढ़ गए। साढ़े दस बज चुके थे, कुछ यात्री बाकायदा जागकर नाश्ता कर रहे थे, तो कुछ सो ही रहे थे। हमें जहाँ जगह मिली वहाँ उपर की दोनों बर्थ पर लोग नींद निकाल रहे थे, सो नीचे की एक-एक सीट तो यूँ भी खाली मिल गईं थीं।

फिर थोड़ा-थोड़ा सबने एडजस्ट किया तो दो के बैठने की और व्यवस्था हो गईं। सामने की बगल वाली सीट पर बैठी महिलाओं ने भी थोड़ी सहृदयता दिखाई… इस तरह से हम सभी एक ही कंपार्टमेंट में इकट्ठा हो गईं। मेरी सीट पर सबसे पहले शर्मिला बैठी थी, उसके बाद मैं। ट्रेन अभी भी रुकी हुई थी, जब सारे लोग ठीक से सैटल हो गए तो मेरा ध्यान बाहर की तरफ गया। वहाँ एक 22-24 साल का लड़का खड़ा था, वो लगातार हमारे ही कंपार्टमेंट में देख रहा था, जैसे ही मेरी नजर उधर गई, उसने इशारे से मुझे बताया कि मैं अच्छी लग रही हूँ… मैं एकाएक चौंकी… मैंने शर्मिला की तरफ देखा, लेकिन वो सामने बैठी ऋचा से बातों में मशगूल थी। फिर मैंने ऋचा के पास बैठी अनुभूति की तरफ देखा तो उसने तो बाकायदा आँखें मूँद रखी थी। मैंने फिर से धड़कते दिल से बाहर की तरफ देखा, वो अब भी वहीं खड़ा था, उसने फिर से मुझे वैसा ही इशारा किया… मेरी धड़कनें बेकाबू हो गईं… मैंने चोर निगाहों से एक बार फिर अपने आसपास देखा, चाहा कि बाहर की ओर नहीं देखूँ, लेकिन फिर भी निगाह चली गई, वो अब भी वहीं खड़ा था। अब गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी थी, वो थोड़ी दूर तक खिड़की के साथ-साथ दौड़ता दिखा, फिर से उसने वैसा ही इशारा किया… गाड़ी तेज हो गई और वो वहीं छूट गया।

मैं एकाएक असहज हो गई, आमतौर पर मैं सबकी बातों में शामिल होती हूँ, लेकिन आज मुझे खुद भी पता नहीं कि मैं कहाँ हूँ। मुझे प्लेटफार्म पर आ रही गाने की आवाज की याद आ गई। गाड़ी पहुँचने वाली थी, लेकिन मैं बहुत कोशिश करके भी सहज नहीं हो पा रही थी। मैंने खुद को बहुत झिड़का… मैं उस लड़के की उम्र के बच्चों को पढ़ाती हूँ… अब कोई मेरी उम्र भी 20-22 साल नहीं है। खुद को ये कहकर भी समझाया कि हो सकता हो, वो शर्मिला के लिए खड़ा हो और… लेकिन फिर मैं खुद से ही तर्क करती हूँ कि फिर उसने मुझे क्यों इशारा किया…? पूरा दिन मेरा होना, मेरे सामने ही नहीं खुला… दिन एक तरंग… एक नशे-की-सी हालत में गुजरा… हाँ खुद को झिड़कना भी दिन भर जारी रहा। शाम को जब फिर से उसी प्लेटफार्म पर उतरीं तो लगा जैसे यहाँ सब कुछ बदला हुआ है। हर दिन की तरह घर भागने की जल्दी मुझे महसूस नहीं हुई। एक बार बहुत सतर्क नजरों से पूरे प्लेटफार्म का निरीक्षण किया… पता था कि अब यहाँ कुछ भी नहीं होगा, लेकिन… खुद से पूछ भी रही हूँ कि ये क्या बचपना है…? यूँ ऐसे नई-नई हुई जवान लड़की की तरह छुईमुई होने की तो कोई वजह नहीं थी… मगर कुछ तो था ही…। गाड़ी निकाल कर जब घर की तरफ बढ़ी तो अग्रवाल मिष्ठान्न पर बाहर रखे बड़े से कड़ाह की चाशनी में तैरते गर्मागर्म गुलाबजामुन दिखे… यूँ कभी भी रुक कर कुछ खरीदती नहीं हूँ, लेकिन आज… रुक कर आधा किलो गुलाबजामुन बँधवाए।

घर पहुँची और चेंज कर लौटी तब तक सौम्य चाय बना चुके थे, मैं गर्म गुलाबजामुन बाउल में रख रही थी कि फोन बजा। सौम्य चाय लेकर जा चुके थे, ऋषभ भी वहीं था, इसलिए इत्मीनान था कि कोई-न-कोई फोन तो उठा ही लेगा। मैंने नमकीन निकाला और सारे सामान को ट्रे में सजा रही थी कि सौम्य ने अंदर आकर खुशखबरी सुनाई – अरुण का फोन है, तुम्हारा ट्रांसफर रुक गया है… ।

पता नहीं कैसे गुलाबजामुन का बाउल मेरे हाथ से छूट गया… गुलाबजामुन लुढ़के और बाउल टूट कर पूरे किचन में बिखर गया… मैं उस बिखरेपन को एकटक देख रही थी और मेरे अनजाने ही आँसू उमड़ आए थे… सौम्य ने मेरे सिर को प्यार से थपथपाया… कोई बात नहीं… इसमें रोने की क्या बात है? चलो तुम बाहर जाओ… मैं सब ठीक कर देता हूँ… मैं धुँधलाई आँखों से कभी सौम्य को तो कभी उस बिखरेपन को अवाक होकर देख रही थी।

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