कहने को तो हजारों बातें हैं। बातें ही बातें हैं चाहें तो जोड़ लें, बना ले सिर पैरों वाली। चाहें तो तोड़ कर जर्रा-जर्रा बिखेर दें बना दे बेसिर पैरों वाली। अब पैसा दिया है… आपने, (बोलने वाला मंच के बीचों-बीच खड़ा है और अपने दोनों हाथ पक्षी के डैनों समान पूरे खोल कर, सामने रखी हॉल की खाली कुर्सियों की ओर इशारा करता है) माने खर्च किया है तो बताना ही पड़ेगा। इसे नाटक मानने की हर्गिज भूल न करें। मैं कोई सूत्रधार नहीं। बीच-बीच में मंच पर प्रस्तुत होने वाला विदूषक भी नहीं। आपके हँसने का ठेका नहीं लिया है मैंने। वैसे हँसने से मना भी नहीं किया है। आप चाहें तो हँस भी सकते हैं। रोना चाहें तो रो भी सकते हैं। आखिर मैं आपके भावों को जगाने आया हूँ, दबाने नहीं। मैं किस्सा कहने वाला जो हूँ।

धत! बड़ा फ्लैट स्टार्ट है। लोग कूदने लगेंगे। बड़ा आया किस्सागो। इसकी तो ऐसी की तैसी। यह तो सिर्फ खींच रहा है।

गौरतलब है, कि यह शहर का मशहूर हाल, रवींद्र भवन है और किस्सागो लौटा है इंग्लैंड का टूर कर। उससे लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं, इसीलिए…

इंग्लैंड में किस्सागोई का भव्य आयोजन था। विश्व किस्सागोई सम्मेलन। वहाँ एक नियम था – किस्सा बयान करने का वक्त तय था – सिर्फ एक घंटा। किस्से की लड़ी टूटने न पाए, इस बात का भी ध्यान रखना था। यहाँ की तरह खुली छूट नहीं थी। अब, आप सब तो जानते ही हैं, कि इस शहर में किस्सागोई की एक विरासत रही है। किस्सागो इसी शहर का रहने वाला है, आप सब यह भी जानते हैं। प्रचार में थी यह बात।

मेरे बचपन के दिनों में, इस शहर में कई लोग किस्से कहते दिख जाते थे। मैं शायद उन सभी को अपने अंदर भरता-भरता बड़ा हुआ। मुहल्लों, बाजारों और पुरानी इमारतों के पटियों पर पटियाबाजी की कोई पाबंदी नहीं थी। किस्से ही किस्से थे। बैठने वाले कहते ही रहते थे। एक आजादी सी थी, खींचे जाओ-खींचे जाओ। घरों से खाना-पीना कर लोग चले आते थे और बैठ जाते थे। फिर रात के तारे जब तक अपनी आँखें न मिचमिचाने लगते, तब तक लोग खींचते ही जाते थे। आज याद कर मुँह में रस खिल आया है। वैसा ही रस, जैसा, तब खिलता था, जब सारे लोग सिर जोड़ कर उस रस में डूब जाते थे। गन्ने के रस सा शीरी और मस्त करने वाला रस था वह।

बस वहीं आए थे एक निगम साहब, जो बगल में बैठ गए मेरे और जो सुनने लगे तो सुनते ही चले गए। मजा तो तब आया जब किस्से में वे भी टपक गए। बादल बन गए किस्से में बिरहा गाती तारा के लिए संदेशा ले आए थे। ध्वनि के साथ बाले भी लाया बादल उस दिन, “तारा… तुम्हारा पति राजी खुशी है मुंबई में, आएगा और जल्द सलमे के काम से सजी जार्जेट की साड़ी भी लाएगा, फिर पहनकर इतराना मुहल्ले में।” किस्से का यह वाला हिस्सा खूब जोर-जोर से गाया गया और दो घर दूर तारा के कान तक जरू़र पहुँचे इसका ख्याल रखा गया। थोड़ी देर बाद तारा के बड़बड़ाने की आवाज हवा की तरह रात के अँधेरे को चीरती हुई हम तक आई,

“अरे, सलमे वाली साड़ी के लिए मुंबई जाने की क्या जरू़रत… यहीं तो अब सब…” फिर एक सिसकी रात के हल्केपन को भेदती हुई उसे भारी कर गई।

अब तारा…? तारा का-किस्सा, कैसे कहे आपसे?

मुहल्ले वाले रंडी कहते हैं उसे आपको ताज्जुब होगा। आप जैसे सभ्य लोगों के बीच यह शब्द चलता है क्या? आखिर आप भद्र लोग लोग हैं। होगे ही। श्रोता हैं – दर्शक हैं। पैसे वाले हैं। पैसा खर्च कर किस्सा सुनने आए हैं, इंग्लैंड रिटर्न किस्सागो से किस्सा सुनने। उस दिन जब बिरहा गाती नायिका के किस्से में निगम साहब टपक गए थे, बादल की तरह – जी हाँ – बादल की तरह, तो किस्सा कोई और होकर भी तारा का बन कर रह गया था और लगा था कि हम समय में कहीं पीछे चले गए हैं, क्योंकि समय में पीछे ही कभी तारा भी बिरहा गाती होगी। इसी तरह का बिरहा। शायद मेरे बचपन के दिनों में, शायद मेरे बड़े होने के दिनों में… आज तो नहीं गाती है, कभी सुना नहीं हमने। लेकिन किस्सागो के दिल को लगता है, जरू़र बिरहा ही गाती होगी तारा, उन दिनों…

निगम साहब तो अजनबी थे हमारे लिए, लेकिन उस दिन अचानक जो आए हमारे साथ पटिये पर बैठने तो वहीं के होके रह गए। पहली बार जब किस्से में बादल हो गए वो तो उनका महीन जबड़ा धीरे-धीरे हिलने लगा था। उनके पैर एक के ऊपर एक चढ़े गवैये के संगत समान तबले की थाप बन थप-थप करने लगे। किस्से में लय आ गई। तान खिंच गया। वे भी मस्त, रस में डूब गए। उन्होंने अपने दोनों हाथों को कटोरी बना कटोरी में छुपा लिया अपनी महीन ठुड्डी को और जब तारा की खिड़की से आँसू की कतरनें आकर उनकी आँखों के इर्द-गिर्द चिपकने लगी तो वे पूरे गीले हो गए। किस्सा वहीं रुक गया। किस्से पर भी तारा के आँसुओं की कतरनें जमा होने लगीं। यह बात निगम साहब नहीं समझ पाए। वैसे किस्सागो को इससे क्या, वह तो तारा के सब किस्से जानता था और जो नहीं जानता था गढ़ सकता था। ये उसका इख्तियार था। किस्सागो मुहल्ले की आँख-नाक-कान, बोली-बानी सब था। उस दिन लेकिन निगम साहब के गीले होने से किस्सा नम हो चुप लगा गया। निगम साहब ने जिस नजर से मुझे देखा, मैं पूछ बैठा,

“क्या सौदा करना है?”

उनकी पनीली आँखों में हैरत छपाक से कूद कर तैरने लगी, “तुम्हें कैसे मालूम?”

“बस, जानता हूँ। बिरहा, तारा… किस्सा सब सौदे की ओर ले जाते हैं पर साहब मुहल्ले वाले जो कहें, रंडी नहीं है वो।”

“अरे… क्या बोल रहे हो?”

साहब ऐसे उछले जैसे अभी कोई पटाखों पर शरारत से बिठा गया हो उन्हें।

“कौन तारा? मैं तो तुमसे तुम्हारे हुनर का सौदा करने आया हूँ। जानते हो, तुममें बयान की बड़ी ताकत है। तुम बड़ा नाम करोंगे। हमारे देश में कथा-वाचन की पुरानी परपंरा रही है। तुमने उसको जिंदा रखा है, इस शहर में मैं रोमांचित हूँ। बस तुम हाँ बोल दो…। हाँ। मैं तुम्हे वो किस्सा सिखाऊँगा जिसे बयाँ कर तुम देश-विदेश में मशहूर हो जाओगे।”

अब अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। मुझे रोटी की सख्त दरकार थी। निगम साहब ने कुछ अच्छे पैसे मिलने की बात भी की थी। मैं कुछ नहीं करता था। कोई पनौती थी मेरे संग। जहाँ हाथ डालता था, सब गड़बड़ हो जाता था। पिता ने सायकल की दुकान पर बिठाया, पुश्तैनी फलता-फूलता धंधा था। मैं एक पंक्चर ठीक से न बिठा पाया। दुकान बैठ गई। पिता को लोन ले दुबारा जमानी पड़ी। परचून की दुकान का माल चूहे खा गए। गमछे तकिए, खोल की बंद दुकान एक दिन बिजली के तारों के आपस में मिल जाने पर पूरी की पूरी स्वाहा हो गई। हर धंधे में असफल रहा – मैं! लिहाजा मुँहचोर हो गया। घर जाता ही नहीं था। पिता से लेकर भाई-बहन सबने मुझे लापता मान संतोष कर लिया। बस हर घर की तरह मेरे घर में भी एक अम्मा ही थी जो पूरे घर से छुपा-छुपा कर मेरे लिए कुछ खाने-पीने का जुगाड़ कर देती थी। चुपके से रसोई घर के सबसे नीचे ताखे पर तसले से ढक कर खाना रख देती थी। मैं बिल्लियों की तरह दबे पाँव घर में घुस सफाई से खाना कर कब निकल जाता था, घर वाले कभी जान ही नहीं पाए। खाने के अलावा घर से मेरा कोई ताल्लुक नहीं था। वहीं तारा के महुल्ले में उसके घर से दो घर की दूरी पर थी, सदर मंजिल की ऊँची दीवारें और पुख्ता मजबूत पटिए, वहीं अपना कोना ढूँढ़ समय काटने लगा और लफ्फाजी करने लगा मैं। जहाँ मैं बैठता था उसके ठीक सामने भास्कर दादा की टीन टप्पर वाली दुकान थी, जहाँ से चाय खस्ता आ जाता था। अब भास्कर दादा का क्या तारूफ – राजा आदमी थे। वहीं सड़क पार से मुझे देख मुस्काते रहते और मैं अकेला होने पर एक उँगली उठा देता था, जब कोई किस्सा सुनने वाला मिल जाता था तो दो उँगलियाँ। भास्कर दादा निराश नहीं करते थे। कहते रहते थे जब धंधे में लग जाना तो उधार चुकता कर देना। खट् से चाय की चुस्की का इंतजाम कर देते और कभी न खत्म होने वाले किस्से की शुरुआत हो जाती थी।

भास्कर दादा मेरे शहर के आदमी थे, जैसे मेरे शहर का एक खास पेड़ था वहीं सामने मैदान में, जहाँ मैं किस्सा कहता था। खिरनी का पेड़ था वह। सुनते हैं सत्रहवीं शताब्दी में ढेरों की हैसियत से खिरनी के पेड़ लगाए गए। मुगल सम्राट को प्रिय था खिरनी का फल। ये पेड़ मगर, उस समय का हगिर्ज नहीं हो सकता, जैसे कुछ बातें हर्गिज नहीं हो सकतीं जैसे तारा कभी रंडी नहीं हो सकती। पेड़ तो बाद में लगाए गए होंगे ही पर तारा तो बाद में भी कभी…। नहीं…! न! फिर तारा का जिक्र। किस्सागो हर वक्त भटक क्यों जाता है? यहाँ नियम नहीं है न कोई? न मन का न तंत्र का। इस देश में – इस देश के इस शहर में। कुछ भी कहने पर पाबंदी नहीं है यहाँ, कुछ न कहने पर भी नही। मिजाज में भी कोई पाबंदी नही। वहाँ इंग्लैंड में तो हर चीज का नियम था। भटकने का स्कोप नहीं था, सबकुछ सिलसिलेवार चलाना था। उसी के पैसे भी थे। अगर किस्से में कुछ टूट-फूट, ऊबड़-खाबड़ हो जाती तो पैसे कटने का डर था। इसलिए डर कर सब लोग काम ठीक से करते हैं वहाँ। सुनते हैं अमरीका में इंग्लैंड से ज्यादा नियम कानून है। और सब लोग उसे खुशी-खुशी मानते हैं और खुश रहते हैं, कोई दिक्कत ही नहीं होती है लोगों को, गजब का देश है भाई वह। निगम साहब कह रहे थे, अगली बार अमरीका जाना है, काश यहाँ किस्सागो अमरीका से होकर आया होता तो उसका रेट और बढ़ा हुआ होता। निगम साहब कह रहे थे “एक बार अमरीका की मुहर लग जाने दो फिर देखना देश-विदेश एक तरफ, तुम्हारे अपने इस देश में तुम्हारा कितना सम्मान बढ़ जाएगा। अरे स्टार बन जाओंगे तुम”। सम्मान किसे भला नहीं लगता? मुझे भी तो…! आप सोच सकते हैं, घर के बाहर पटियों पर बैठ किस्सागोई करने वाला एक लाचार शख्स…! वह मुँहचोर शख्स जो जीवन के हर धंधे में असफल रहा, भास्कर दादा की दुकान का उधारखोर शख्स आज इंग्लैंड रिटर्न, कल अमरीका रिटर्न होगा। उसके सम्मान में इस कदर इजाफा होगा! कितना तरसा हूँ इन चीजों के लिए। आज सबकुछ मेरे दोनों हाथों में समाए नहीं समा रहा है। ऊपर से आप सब लोग पैसा खर्च कर मेरी कद्र बढ़ाने आए हैं। क्या भाग्य है मेरा!

भास्कर दादा की चाय मैंने अकेले थोड़े ही पी है। मेरे साथ कितने ही रात को भटकने वाले लोग आकर बैठे थे। कितनी बार उँगलियाँ दो तीन चार-पाँच का इशारा कर उठीं थीं। खिरनी का पेड़ गवाह है। शहर के लोगों ने ही मशहूर किया था। “रात है तो बात है, किस्सागो का करिश्मा।” किस्सों से करिश्माई ढंग से मसले हल होते थे। वे आपस में बाजार में बतियाते थे,

“किस्सागो ने कल मेरा पत्नी से झगड़ा सुलझा दिया।”

“मेरा बेटा मेरे बारे में पहली बार चिंतित हो, मुझे ढूँढ़ता आया, मुझ बूढ़े को किस्सागो के पास बैठा देख, वह भी बैठ गया। किस्सा खत्म होने तक वह भी उस किस्से का हिस्सा हो चुका था। जब भोर के कलरव में चिड़ियों का स्वर दबने लगा तो मेरा बेटा मेरा हाथ पकड़ मुझे घर ले गया और कहने लगा बाबा तुम मेरे कितने अपने हो, मैंने अब तक तुम पर क्यों ध्यान नहीं दिया। मैंने उसके कंधे हल्के हल्के दबाए, ठीक वैसे ही जैसे बचपन में दबाता था जब वह थक जाता था। आज भी आत्मग्लानि का बोझ उसके कंधे पर जम न गया हो जिससे कहीं वह थक न जाए। यही सोच मैं उसके कंधे दबाता घर पहुँचा। वह इज्जत के साथ मेरी घर वापसी थी (बूढ़े का कथन)।”

एक प्रेमी ने गुर सीखे रूठी प्रेमिका को मनाने के।

एक मोहतरमा मियाँ पर शक करती वहाँ पहुँची और मियाँ को ऐसे भोले शगल में उलझा देख, बच्चों की तरह खिलखिलाती लौट गईं। वहीं उन्हीं लोगों के बीच बातों को जान निगम साहब मुझे ढूँढ़ पाए। वे मुंबई से “टैलेंट हंट” कार्यक्रम के लिए पूरे देश के दौरे पर निकले थे। मुझसे मिले और बारबार कहने लगे “तुम मेरे हो जाओ।”

फिर कहने लगे “सुनो बात समझने की कोशिश करो, तुममें विलक्षण प्रतिभा है। तुम्हें मैंने इंडियन कथावाचन के ब्रांड नेम के रूप में न बेचा तो मेरा नाम निगम नहीं।” मसखरे में किस्सागो पूछ बैठा, “तो क्या नाम होगा, आपका साहब?”

“कुत्ता, कुत्ता कहना तुम मुझे।”

“कुत्ता?” वह पहली और आखिरी बार था जब मैंने शब्द के प्रभाव को सुनने के लिए कुत्ता कहा निगम साहब को। बाद में तो मौका ही नहीं दिया उन्होंने। जैसा कहा था वैसा ही किया। मशहूर ब्रांड बना दिया मुझे। मंच, पर आने-जाने का सलीका, क्यू का मतलब, प्रौप्स का इस्तेमाल और घूमती रोशनी को ठीक टाइमिंग से पकड़ उसके बीच में खड़े हो, किस्सा कहना – सब सिखाया निगम साहब ने। उसके बाद इंग्लैंड ले गए। वहाँ इंग्लैंड में जाकर देखा। मेरे पहुँचने से पहले मेरी शोहरत पहुँच चुकी थी, लोग बहुत उम्मीद से मुझे सुनने आए थे। वे लोग अभी भी इस देश को हसरत भर, नौस्टाल्जिया से देखते हैं (किस्सागो का शब्द ज्ञान खास तौर से अँग्रेजी का, निगम साहब की ही देन है) वे आँखों की भाषा से अपने जुड़ाव को व्यक्त कर रहे थे। किस्सागो के मंच पर पहुँच, कुछ भटक जाने पर वे कहने लगे “आज के इंडिया के किस्से नहीं, स्टोरी टेलर… तुम्हारे शहरो, मुहल्लों के किस्से नहीं… चाहिए हमें।” किस्सागो ने आदत से मजबूर हो एक बार वहाँ भी नाम ले लिया था धीरे से, अपने शहर, मुहल्ले की तारा का। “नहीं! कौन तारा? मस्ट बी समथिंग प्रेजेंट… नो, नो तारा…। नो प्रेजेंट। पास्ट…पास्ट…। पास्ट चाहिए हमें…”

किस्सागो ने कहना चाहा देखिए साहेबान वक्त तेजी से गुजर रहा है, और इस रफ्तार से तारा भी जल्द बीत जाएगी, बल्कि जल्द बीतती जा रही है। आखिर वह भी पास्ट हो रही है। उसका किस्सा जरूरी है। आपका नजरिया थोड़े जिंदा चीजों पर भी साफ होना चाहिए।

“नहीं… नहीं…।नहीं” लंदन के हाईड पार्क में बैठे वे चिल्लाए।

“और पीछे जाओ… रिमोट पास्ट में जाओ। हमें वहाँ सुकून मिलता है। थ्रिल मिलता है, एक्जोटिका मिलता है।”

मैं सोचने लगा कब तक वही? कब तक वही…? इंग्लैंडवासी मगर बड़े खुशनुमा लोग हैं वे खुशनुमा अंदाज में कोरस गाने लगे “हरे रामा… हरे रामा।” जब सुनने वालों का उत्साह बढ़ने लगा, और उनकी उत्तेजना सामूहिक हो गई तो निगम साहब ने थम्सअप किया। “अब शुरू हो जाओ।” अंदर ही अंदर तो तय हो ही गया था कि किस्सागोई उसी अतीत की होगी। दरअसल कार्यक्रम ही वही था। लगभग पच्चीस देशों के किस्सागो वहाँ जमा थे, जो अपने अपने देश की मिथक कथाओं को जिंदा करने के उद्देश्य से हर साल इंग्लैंड फिर अमरीका में जमा होते होते थे और उनकी बातों को फिर एक व्यापक विश्वव्यापी प्रचार मिलता था। ढेर सारी प्रसिद्धि और पैसा भी। निगम साहब ने उसका हौसला बढ़ाया “देखना तुम, अपने यहाँ का किस्साबाजी मारेगा। हमारे यहाँ रंग, गंध, रूप, संगीत सब हैं। जब मंच पर तुम इधर उधर दौड़ कर वाचन करोगे और पीछे से सितार बजता रहेगा, तबले की थाप पर, तो क्या समाँ होगा?” किस्सागो को परफारमेंस का यह अंदाज पसंद आया लेकिन चूँकि उसे सफेद रंग पसंद था, इसलिए उसने निगम साहब से जिद की, कि वह सफेद रंग की पोशाक पहन अपनी परफारमेंस देना चाहता है। सफेद रंग में दरअसल उसे अपना गुरबत का साथी नजर आता था। सफेद रंग के दो कुर्तों में उसने अपने मुफलिस जीवन के सात वर्ष काटे थे। उनकी देखरेख आसान थी। धोने और ब्लीच करने के बाद वे नए लगने लगते थे। उस रंग ने उसे लाज भरे दिनों में भी शर्मसार नहीं होने दिया था। उसी रंग को पहन वह अपने मुँहचोर अंदाज को भूल जाता था और बतकही के रस में डूब जाता था। फिर तारा का प्रिय रंग भी सफेद था। तारा की पसंद उसे लेकिन पहले कहाँ पता चली थी, वह तो बहुत बाद में…! तारा की खिड़की का रहस्य तो और बाद में उसके किस्सों में रचा था। इसी से उसके मन में सफेद रंग के प्रति एक तरल सम्मान जनमने लगा था। वो साड़ी का सफेद पल्ला जो खिड़की बंद करते वक्त थोड़े सा दृश्य बन उसके किस्से में ताजे बर्फ की तरह खिल उठता था, उसे पाकीजगी का पर्याय लगने लगा था। वह जब अपने किस्सों में पाकीजा बात कहता था तो उन्हें सफेद रंगों का जामा पहनाता था। इसलिए भी उसने एक आखिरी बार निगम साहब से मिन्नत की थी “सफेद पोशाक में परफारमेन्स दूँ? मुझे असली लगेगा, पुराने किस्सागो जैसा?”

“नहीं भाई जब तुम पुराने नहीं रहे तो पुरानी पोशाक का मोह कैसा? तुम्हारे किस्से भी नए हो गए हैं। उनमें रंग भर गया है। ड्रामाई रंगीन तत्व भर गए हैं, तो सफेद का ये फिक्सेशन क्यों? न… तुम्हें अपने स्वभाव और पसंदों में भी बदलाव लाना होगा… मंच की आवश्यकता, अनुसार। और हाँ…। हमारी इस बातचीत के बीच प्लीज तारा नहीं आएगी।”

निगम साहब खामखाँ तारा को बीच में लाए। किस्सागो तो कुछ बोल नहीं रहा था। उसके मन में मलाल पलने लगा, काश वह तारा को उतना खुशनुमा और सुंदर बना पता जितना इंग्लैंड है। चारों ओर सुंदर चीजें, खुश लोग। कहीं गुरबत की छाया ही नहीं दिखी उसे अपने देश सी यहाँ। तारा भी स्त्री नहीं देश हो जाती तो? समृद्ध सा देश!

लंदन के हाईड पार्क में किस्सा शुरू हुआ, लोग मदमस्त हो गए। वे कभी खुश होते कभी रोने भी लग जाते। किस्सागो हिंदी में कह रहा था, लेकिन सम्वेदनाओं का आदान-पद्रान क्या किसी भाषा का मोहताज है?

“रामजी जब अयोध्या जाने लगे तो दशरथ दाढ़ी पर हाथ फेरते धड़ाम से गिर गए।” किस्सा वहीं से उठने लगा। लोगों को सबसे लुभाने वाला बनवास का प्रसंग तो लगता ही था, भरत मिलाप, सीता मैया के निर्वासन और राम की सत्ता को चुनौती देते उनके बालकों लवकुश की चुनौती भी खूब प्रभावित करती थी। पूरे महाग्रंथ को एक घंटे में अहिंदी भाषियों को समझा देना और ताली बजवा लेना दुरूह काम था। निगम साहब ने मगर हीरा चुना था। दम दम कर दमकता था मंच पर। “व्हाट ए परफोरमेंस।” निगम साहब ने परफारमेन्स के बाद उसकी पीठ ठोंकी। किस्सागो उनके सीने से लग गया सीने से लगने के पीछे उसका मंतव्य निगम साहब को अपने अंदर का बिरहा सुनाना था। अंदर से वो लगातार अभी भी पटिए पर बैठा, किस्से का ताना-बाना रचता और बंद होती सिटकिनी की आवाज में अपने किस्से का अंत ढूँढ़ता था।

पता नहीं उसके सीने से लगने पर भी निगम साहब क्यों नहीं सुन पा रहे थे उसके अंदर के किस्से?

“पैसा-पाउंडस में मिला है।” उन्होंने उसे सीने से जुदा करते हुए कहा,

“बहुत सारा है। अब तुम मुंबई में अपना एक फ्लैट ले लेना।”

“मुंबई क्यों? मेरे शहर में क्यों नहीं?”

“क्या रखा है वहाँ?”

“तुम्हारा परिवार तो तुम्हारे भाई के साथ शिफ्ट हो गया, दूसरे शहर में, वैसे भी तुम ही कहते हो, वे तुम्हें लापता मानते हैं।”

“हाँ, वे मानते हैं, ” “लेकिन”, उसने निराशा से कहा, फिर भी एक बार उस शहर में जाना चाहता हूँ? यूँ ही… देखने।”

बहुत इसरार करने पर माने निगम साहब लेकिन शर्त बँधा गए, “शहर के रवींद्र भवन में परफारमेन्स रखवाऊँगा, तुम्हारा।” तो किस्सा शुरू करने के पहले का किस्सा। यह जो किस्सागो का शहर है, यहाँ बातें नम और पुरानी हैं। माँ की ढक कर रखी गई रोटी सी नम। रात के अँधेरी की तरह हल्की और अंदर घुस जाने जैसी नम। तारा की पुकार की तरह अपने पास खींचती सी नम। तारा का दोष नहीं कि लोग लोग उसे रंडी कहते हैं। सच तो यह है कि वह उस मुहल्ले की ढकी छुपी रहस्य से भरी औरत है। जिसे लोग कभी ठीक से जान ही न पाए और उसका एक नाम रख दिया। सही मायने में दोष उस मरदूद का है। वही मरदूद पति उसका! क्या सोच कर गया मुंबई? और लापता हो गया। कुछ लोग कहने लगे, लगता है सऊदी चला गया। कुछ कहते इंग्लैंड। इंग्लैंड? हँसने वाली बात है ये। वो गुरबा जिसने तारा को भगाकर शादी की थी, इंग्लैंड कैसे जा सकता था? जब तक निगम साहब जैसा कोई न मिल जाता उसे। उसके अपने बूते की बात तो वह नहीं थी। इतने पर किस्सागो रुक गया है। वह समय के पीछे से आकर फिर आज का बन गया है।

शहर के रवींद्र भवन में एक बेचैनी आँखें फाड़ उसका दीदार कर रही है। समय बीत रहा है पर यहाँ अभी इंग्लैंड जैसे सख्त नियम नहीं बने हैं। किस्सागो कुछ छूट ले सकता है यहाँ। यह उसका शहर है। यह उसका देश है। वह एक बार मंच पर आता है, उसे चूमता है और सीधे दर्शक-श्रोताओं के समूह में कुछ ढूँढ़ने लगता है। वह भास्कर दादा को ढूँढ़ रहा है, कहीं शहर में प्रचार वाला पोस्टर देख वे उसके किस्से सुनने आ गए हों? इस बार उनका समूचा उधार चुकता कर देगा वह। पैसे हैं उसके पास। वो गौर से देख रहा है और लोगों को आँखों की भाषा से समझाने की कोशिश कर रहा है, क्या यार, तुम लोग पैसे देकर क्यों सुनने आए हो वही, जो यहाँ के बच्चे-बच्चे की जुबान पर है? तुम तो कुछ और सुनने की फरमाईश करो। थोड़ा अपने बारे में, थोड़ी जिंदा चीजों के बारे में। रोचक ढंग से सुनाऊँगा। किस्सागोई का शीरीं रस पिलाऊँगा। एक बार बस एक बार मंच पर भी असल हो जाने दो मुझे, अपने मन का कहने दो, यहाँ मेरे अपने शहर में…। निगम साहब फ्लेक्स से लगातार इशारा कर रहे हैं। एक आदमी, मोटा सा आदमी, नजरों पर गोल्ड फ्रेम का चश्मा पहने चिल्लाने लगा है। हाथ उसका किस्सागो की ओर है “व्हाट नानसेंस, व्हाई हैव वी कम हीयर? स्टार्ट द प्रोग्राम…।”

किस्सागो इतनी अँग्रेजी समझने लगा है। वह दंग है। शहर से सारी सरलता गायब हो गई है क्या? या लोग जीवन को इतनी अधिक सरलता से जीने लगे हैं कि, एक ही किस्सा, सबकी जुबाँ पर रटा हुआ किस्सा ही, बार-बार सबके मुँह से सुनना चाहते हैं, ताकि कोई कन्फ्यूजन ना रहे? वह अपने ख्यालों की जमीन से तेजी़ से बाहर आता है और मंच पर धबाक से पटक दिया जाता है। यहाँ भी तो पहले से तय था ही कि वही कथा बाँचनी है उसे। वही जो हाईड पार्क में लोगों को हँसा रुला रही थी। वही जो उसके आज के किस्सों के सच से ज्यादा ड्रामाई तत्वों से भरी थी। फिर वह क्यों अपने शहर के बदले मिजाज को टटोलने बैठ गया था! हँ? वह तैयार होने लगा…!

और उसके साथ ही, उसके अंदर एक मचमच होने लगी। पटिये वाले किस्सागो का भूत आज अपने शहर के रवींद्र भवन के मंच पर उसके अंदर से सिरे से बिलाने को उन्मत होने लगा। उसे याद है, पिछले दिनों कितने घमासान लड़े गए उसके भीतर, उस भूत और मंच पर कथा कहते उस दूसरे किस्सागो से। मगर वह जो उसके शहर के लोग कहा करते थे “किस्सागो का करिश्मा”, वह करिश्मा आज बिना कश्मकश के पूरे का पूरा उड़ रहा था – अपने आप। उस भूत की इस दुनिया में बने रहने की मियाद मानों खत्म हो चुकी थी। इस अहसास के बाद वह पूरी तरह तैयार हो गया। अब वह मंच वाला किस्सागो हो गया पूरा का पूरा। उसने नजर भर निगम साहब को ताका। वे और दिनों से आज ज्यादा खुश लग रहे थे।

उनके इंग्लैंड रिटर्न किस्सागो की सबसे बेहतरीन परफोरमेंस होने वाली थी यह। गजब का आत्मविश्वास झलक रहा था आज किस्सागो में। उन्होंने ठीक किया अगले विदेशी टूर से पहले उसे यहाँ ले आए थे। कितना अद्भुत था सब कुछ। परफोरमेंस के बाद दर्शक श्रोताओं ने खड़े होकर तालियाँ बजाई। कुछ अदद बच्चे दौड़कर उस तक पहुँचे “आटोग्राफ प्लीज।” वह धड़ल्ले से साइन करने लगा। अपने शहर में अपनी नई आहट की भाषा को पहचानने की कोशिश में वह लग गया था। परफारमेन्स के बाद फ्रेश होने वह होटल चला गया।

उसे जिस हेरिटेज होटल में ठहराया गया था, उस होटल को मुफलिसी के दिनों में देखने पर उसके अंदर एक डर दुबकी मार बैठ जाया करता था। वह होटल उसके ओछे होने का एहसास शिद्दत से जगाता था। सड़ियल छोटा! वह तब उस होटल से एक किलोमीटर दूर तक भाग जाता था, पर डर नाम का कीड़ा उसके अंदर से भागने का नाम ही नहीं लेता था। गें-गें कर उसे अंदर ही अंदर धमकाता रहता था। आज उसी आलीशान होटल के कमरे में उसे ठहराया गया था। चीजें कितनी बदल गई थी। वो कमरे के पलंग पर पैर लटका कर बैठ गया और बदली चीजों को पैर झुला-झुला कर समझने की कोशिश करने लगा। रात भर का समय ही उसके पास था। सुबह की फ्लाईट से उसे मुंबई वापस जाना था। उसने निगम साहब से एक बार भास्कर दादा की दुकान, खिरनी वाला पेड़ और तारा की खिड़की देखने की खवाहिश जताई। निगम साहब मुस्कुरा दिए। “मैं भी चलता हूँ।” नहीं …वो निगम साहब को लात मारकर भगा देना चाहता था। ये सारी चीजे़ं उसकी अपनी थीं बिल्कुल अपनी। उन्हें वो अकेले ही देखना चाह रहा था। लेकिन वो ऐसा नहीं कर सका। अब वो निगम साहब की प्रापर्टी था “एक मशहूर ब्रांड”। उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उन पर थी। वे उसे यूँ ही सड़कों पर, उस खिचखिच भरे मुहल्ले में अकेले कैसे चले जाने देते?

उसने फिर भी एक छोटी सी जिद की – “पैदल चलेंगे।”

वे पैदल ही चले। चलते-चलते उसके शहर की खाली खूबसूरत रात उसके अंदर धीरे-धीरे पहले की तरह ही उतराने लगी। उसके गाल ठंडे और ताजा हो आए उसकी आँखें दृश्यों के पुरानेपन को भीतर करने को आतुर हो पूरी-पूरी खुलने लगी। बड़े तालाब की थप-थप करती लोरी को सुनता हुआ वह भास्कर दादा की दुकान पर पहुँचा। वहाँ पहुँच उसे अजीब सी धुकधुकी घेरने लगी। उसने अपनी शर्ट की जेब को टटोला। निगम साहब ने तुरंत उसके कंधे पर हल्के से हाथ रखा “रिलैक्स, मैं ढेर सारे पैसे लेकर चला हूँ। अपना सारा उधार चुकता कर देना।” दुकान पर भास्कर दादा ढूँढ़े से ना मिले। गुटखा चबाता, लंबे बालों वाला एक लड़का मिला। ऐंठी आवाज में झल्लाते हुए जवाब सवाल करने लगा “क्यूँ क्या काम है?”

“उन्हीं से मिलना है।”

“क्यूँ?”

“उन्हीं को बताएँगे।”

“अच्छा।” लड़का हँसा “लगता है शहर में अभी अभी आए हो, कुछ उधार वापस करना है तो पटक दो यहीं, पता नहीं कितने लोगों को उधारी थमाते रहते थे…! वैसे… मिलने की इतनी ही तलब है तो जान लो उनका आज का पता तो ऊपर है।” और लड़के ने एक अँगूठा आसमान की ओर कर दिया। ऐसा नहीं था कि लड़के ने इस बात को मजाक में कहा था, लेकिन किस्सागो उसे गंदा मजाक मान बैठा। उसका तो हाथ उठ जाता उस लड़के पर अगर निगम साहब उसे वहाँ से खींचकर न ले गए होते तो।

खिरनी के पेड़ तले उसे दूसरी बार धुकधुकी का सामना करना पड़ा। पेड़ को चारों ओर से देखते हुए उसे लगा, पेड़ थोड़ा कमजोर और सूखा-सूखा लगा रहा था। गनीमत थी, फिर भी सलामत खड़ा था भास्कर दादा की तरह कहीं…! उसने पेड़ को दोनों बाँहों में जकड़ जोर से चूम लिया। तने के छिलके उसके नथुनों में घुसने लगे और एक पल को उसे अपना पुराना कुछ पेड़ के भीतर धड़कता सुनाई पड़ा।

जिंदा थीं कुछ बातें, अभी भी। कुछ असल बातें। उनके बोझ को महसूस कर जाने क्यों वह थक गया। वहीं बैठ गया सदर मंजिल के उसी पुख्ता पटिये पर और बिना किस्सा कहे बिरहा गाने लगा, वही पुराना बिरहा। वहाँ से दो घर छोड़ एक घर की खिड़की के पल्ले जंग से जकड़ गए थे। वे पूरी तरह बंद थे। लगता था बरसों से खोले नहीं गए हैं। वह सब देखता रहा और गाता रहा। बीच में एक बार रुक कर निगम साहब से बोला “जाने कैसे जीती होगी साहब, वो?”

“ठीक है…” निगम साहब बोले… “आज मिल लो उससे, बता दो उसे, अपने बारे में, अगर साथ चलना चाहे तो ले चलना अपने साथ, कुछ दिनों के लिए।” साल्लाऽऽ इतना रहस्य बुन रखा है, निगम साहब ने सोचा, वे भी देख लें, उस औरत को जो उसके किस्सागो को आज तक बेचैन किए रहती है। तारा के घरके दरवाजे़ को कई बार खटखटाने पर दरवाजा खुलता है। सामने सफेद साड़ी पहने एक औरत खड़ी है। जिसका चेहरा दिखाई नहीं देता है। लगता है किसी प्रतिशोध से जलते हुए उसने अपने पूरे चेहरे को ढक लिया है। किसी को कुछ नहीं दिखाना है कि तर्ज पर। वह ऐसे बोलती है, पानी खौलते हुए खदबदाता हो जैसे “क्या है?”

“कुछ नहीं, बस एक बात आज दरवाजा खुलवा कर बताने आया हूँ, जो पहले कभी नहीं बोल पाया, सीता जी पर भी गलत ही इलजाम था।”

“तो? मुझे इससे क्या? क्या इतने सालों बाद राम बन माफी माँगने आए हो मुझसे?” खदबदाता पानी उच्छृंखल हो हँसा जैसे “हा…हा…हा… कायर कहीं के, जरा पहले नहीं आ सकते थे, सलमे वाली साड़ी का ख्वाब देखना तो कब का बंद कर दिया था मैंने। फिर भी ‘उसकी’ तरह तुम भी उसके इंतजाम में भटकते रहे? भाग जाओ सब लोग। मैं खूबी मजे में हूँ। मुझे कोई चीज नहीं सताती अब, लोगों की गालियाँ भी नहीं।” दरवाजा जिस मुश्किल से खुला था, उससे कहीं आसानी से बंद हो गया। धड़ाम किस्सागो के मुँह पर मानो तारा, शहर और देश ने दरवाजे बंद कर दिए हों। दरवाजा बंद होने के क्रम में लेकिन निगम साहब ने, इंतजार से उभरी रेखाओं से भरे चेहरे की खाल को बखूबी देख लिया। और दिखाई पड़ गई कभी सुंदर रहे माथे पर सफेद बालों की बेढब, लटें। वे सहम गए। यह औरत तो उम्रदराज हो चुकी थी, इसके प्रति कैसा आकर्षण पाले हुआ था युवा किस्सागो? निगम साहब, समझ गए, आज जो हुआ अच्छा ही हुआ। अब भले ही किस्सागो तारा के भ्रम को जीता जाएगा, लेकिन तारा की नकार उसके रिश्तों के खात्मे की आवाज थी। वे राहत से भरकर बोले “सारी… रियली सारी!” और उल्टे कदमों से वापस चलने लगे। किस्सागो वहीं जम सा गया था, नमी भारी कठोर बर्फ में तब्दील हो चुकी थी। निगम साहब को भारी मशक्कत मचानी पड़ी तब जाके किस्सागो उनके पीछे चला। निगम साहब उसे रास्ते भर समझाते रहे।

“अब यहाँ कुछ नहीं रखा तुम्हारा। तुम्हारी दुनिया तो मंच है भाई…। देखो, अभी जल्द अमरीका चलना है, रिहर्सल की भी फुर्सत नहीं तुम्हें। चलो… चलो… जीवन आगे है तुम्हारा, देखना अमरीका में तुम कितने हिट होगे। मेरे एजेंट ने बताया है वहाँ अच्छा माहौल बना रहा है वो। चलो…!” उन्होंने खुशी से उसे भींच लिया। चारों ओर चाँदनी की रोशनी छतनार हो किस्सागो के शहर में उसकी आखिरी रात को विस्फोटक ढंग से रोशन कर गई। किस्सागो की आँखों में आशा की उत्तेजना का संचार हुआ। वो उड़ने लगा। इतनी जल्दी? इतनी तेजी से, कि बड़े तालाब की लोरी भी नहीं सुन पाया।

किस्सागो अब समय में और आगे चला गया है। उसके सपने में अब तारा नहीं आती। वो अब रुक कर तारा के बारे में निगम साहब को समझाने की कोशिश भी नहीं करता। तारा का बीतना भी उसे अब नहीं अखरता। आखिर तारा ने ही उसे नकार दिया था। अब किस्सागो रंगीन कपड़े शौक से पहन अपने पात्र जीता है। सपने में उसे समुद्र पार करते राम दिखते हैं। किस्सागो का मन अमरीका के लिए श्रद्धा से झुकने लगा है। वहाँ उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। वहाँ से लौटने के बाद देश में भी उसकी इज्जत बहुत बढ़ गई है। शायद इस बार उसे देश के राष्ट्रीय सम्मान पद्मश्री से नवाजा जाए। वो सचमुच स्टार बनकर जीने लगा है। उसे अपना शहर, शहर से आई बड़ी गाड़ी के पीछे कौतूहल से भागता गाँव का बच्चा लगने लगा है, और तारा का वजूद होठों पर खिल आई पान की लाली। जो, छूटते-छूटते छूट ही जाती है।

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