डर | प्रमोद कुमार तिवारी
डर | प्रमोद कुमार तिवारी

डर | प्रमोद कुमार तिवारी

डर | प्रमोद कुमार तिवारी

अजीब शब्द है डर
आज तक मेरे लिए अबूझ
बहुत डरता था मैं
साँप, छिपकली और बिच्छू से
याद आता है –
छिपकली पकड़ने को उत्सुक तीनवर्षीय भाई
और खाट पर चढ़कर काँपते हुए
उसे मेरा डाँटना
अब नहीं डरता मैं जानवरों से
पर समझदार होना
शायद डर के नए विकल्प खोलना है
मेरे गाँव का अक्खड़ जवान भोलुआ
जिसने एक नामी गुंडे को धो डाला था
कल मरियल जमींदार के जूते खाता रहा
उसका बाप कह रहा था
समझ आ गई भोलुआ को
अब कोई डर नहीं।

बहुरूपिया है डर
डराते थे कभी
चेचक, कैंसर और प्लेग
अब मौत पर भारी बेरोजगारी
बहुत डर लगता है
रोजगार कॉलम निहारतीं सेवानिवृत पिता की आँखों से।
आज कुछ भी डरा सकता है
एक टीका
टोपी
दाढ़ी
यहाँ तक की सिर्फ एक रंग से भी
छूट सकता है पसीना
सपने में भी न सोचा था
पर सच है, मुझे डर लगता है
बेटी के सुंदर चेहरे से
और हाँ! उसके गोरे रंग से भी।

किसी ने बताया डर से बचना चाहते हो
तो डराते रहो दूसरों को।
पर देखा एक डरानेवाले को
जिसने गोली मार दी
अपनी प्रेमिका को
डर के मारे।

कहते नहीं बनता
पर जब भी अकेले होता हूँ
बहुत डर लगता है खुद से
एक दिन मैं देख रहा था
अपना गला दबाकर
यह भी जाँचा था
कि मेरी उँगलियाँ आँखें फोड़ सकती हैं या नहीं
और उस दिन
अपने हाथों पर से भरोसा उठ गया।
साजिश रचती हैं साँसें मेरे खिलाफ
लाख बचाने के बावजूद
पत्थर से टकरा जाते हैं पैर।
अब मैं किसी इमारत की छत पर
या पुल के किनारे नहीं जाता
मेरे भीतर बैठा कोई मुझे कूदने को कहता है
तब मैं जोर-जोर से कुछ भी गाने लगता हूँ
या किसी को भी पकड़ बतियाने लगता हूँ
पर क्या पता
किसी दिन
कहने की बजाय वो धक्का ही दे दे

एक दिन मैंने उससे पूछा
किससे डरते हो
मार से
भूख से
मौत से
किससे डरते हो
बहुत देर की खामोशी के बाद
आई एक हल्की-सी आवाज
मुझे बहुत डर लगता है
डर से।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *