दादा जी साइकिल वाले | फ़रीद ख़ाँ
दादा जी साइकिल वाले | फ़रीद ख़ाँ

दादा जी साइकिल वाले | फ़रीद ख़ाँ

दादा जी साइकिल वाले | फ़रीद ख़ाँ

मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साइकिल की ऊँचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साइकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले ‘दादा जी साइकिल वाले’ नाना ने।

अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती ज्यादातर साइकिलें
उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।

वहाँ से गुजरने वाले सभी, वहाँ एक बार रुकते जरूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।
पछिया चले या पुरवइया,
पूरी फिजा में उनके ही पंप की हवा थी।

हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान खाली हो रही थी।
तकरीबन खाली हो चुकी थी।
मुझे वहाँ साइकिल में लगाने वाला आईना दिखा, मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।

शाम को छह बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी
कि इंदिरा गांधी का देहांत हो गया।

चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाजत मिली।
शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था। हवा सब में कम कम थी।

स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।

उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, ‘रहने दो’।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।
उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।

Join the Conversation

1 Comment

  1. बहुत अच्छी कविता। आज साइकिल पर लिखी हिंदी की कविताएं ढूंढ रहा था तो यह कविता मिली – अपने समय को बड़ी शिद्दत से परिभाषित करती हुई। बधाई, पर भारी मन से।
    यादवेन्द्र

Leave a comment
Leave a Reply to Yadvendra Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *