बुर्का | नेहा नरूका
बुर्का | नेहा नरूका

बुर्का | नेहा नरूका

बुर्का | नेहा नरूका

इश्क के मद में सराबोर
हम वे लड़कियाँ हैं
जो अपने महबूब से
मुलाकात के वक्त
बुर्का पहन कर जाना चाहती हैं
हम जब निकलें अपने-अपने घरों से
तो जींस-टॉप, लैगी-कुर्ता व पटियाला-कमीज के साथ
(पर्स में बुर्का भी रखकर)
और जैसे ही हमारा धर्म, समाज और कुटुंब
अपनी पलकें झपकाए
हम झट से बुर्का पहन लें
तब आराम से मदमस्त हो
इश्क की पेंगे भरतीं
मारती कुलाँचें
खिलखिलाती
बतियाती सेलफोन पर…
किसी रेस्तराँ में बैठे राँझे
किसी पार्क में गप्प हाँकते मजनूँ
मल्टीप्लेक्स के सामने टिकट खरीदते
सलीम की बाँहों में समा जाएँ
बेशक इश्क के दुश्मन-ए-बादशाह अकबर
हमें अनारकली की तरह
दीवार में चिनवा देना चाहें
नाचीज कह
थूकें!
और फिर रह जाएँ मन मसोसकर
यह कहते –
‘यदि हमारी तलवारें लोकतंत्र के खाने
में कैद न होतीं तो
हम इन बेचेहरा, हराम, बुर्काफरोश
महबूबाओं का कत्लेआम कर देते”
कहने को हम कायर
कस्बों और कस्बेनुमा शहरों में रहने वाली
वे कमबख्त लड़कियाँ हैं
जो गैस सीरिज रट के
सत्तर-अस्सी फीसदी अंक लाती हैं
और अपने माँ-बाप का कहना मान
‘अच्छी लड़की’
‘होशियार लड़की’
‘सीधी लड़की’
जैसे तमगों से नवाजी जाती हैं
हरेक साल हमें मिलती हैं
उपहार में विश्वास की एक बहुमूल्य ट्रॉफी
जिसे बुर्के में छिपा हम मुहब्बत
करना चाहती हैं
तथाकथित बुद्धिजीवी सोच रहे होंगे
कि हम इस इक्कीसवीं सदी में
बुर्का क्यूँ पहनना चाहती हैं
जब इंडिया की अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियाँ
दुनिया को ठेंगा दिखा
बिकनी पहने
घूम रही हैं समंदरों, सड़कों और पेड़ों के किनारे
कर रही हैं किसिंग सीन
जो प्रतीक है स्त्री प्रगति का
बाजार के मुताबिक
तब इस उत्तरआधुनिक युग में
हमें बुर्का पहनने की जरूरत क्यों आन पड़ी
तो हम उन्हें बता देना चाहती हैं
हम डरती हैं हमारे घरों-मोहल्लों में सक्रीय खाप पंचायतों से
कहीं वे हमें सरेआम फाँसी पर
लटकाने का फरमान न सुना दें
कहीं वे हमें नंगाकर
सड़कों पर न घुमा दें
कहीं वे हमें शहर के
गंदे नाले में न बहा दें
जहाँ खा जाएँ कुत्ते और कौवे हमें नोच-नोचकर
हमारी मुरदा देहों पर न पोत दिए जाएँ
हजारों लाल चुंबन दृश्य फिर अखबार, टीवी और इंटरनेट पर
हमारी रेड पिक्चर देख
मर न जाएँ हमारी माँएँ शरम से यूँ ही
हम लज्जाशील
कर्तव्यनिष्ठ
ममतामयी
पतिव्रता माँओं की लड़कियाँ
इश्क करने की इतनी बड़ी सजा नहीं चाहतीं
कि हमारा संपूर्ण जीवन ही लग जाए दाँव पर
इश्क तो हमारे जीवन का छोटा-सा हिस्सा भर है
और इस हिस्से के बिना हम खुश नहीं रह सकतीं
यही वह हिस्सा है जिसके सहारे हम
कुछ और दुनिया देख पाते हैं
जो देश, जो शिक्षा, जो समाज
और जो कानून
हमें हमारी जान की सुरक्षा नहीं दे सकता
यहाँ कभी भी
कहीं भी
चेहरा पहचानते ही
हो सकती है हमारी निर्मम हत्या
तो कम से कम वे हमारे लिए
कुछ बुर्के ही सिलवा दें
क्योंकि हमें न मरना मंजूर है
न अपनी मुहब्बत मारना।

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