बँगले में | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
बँगले में | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

जब सब आरती कर रहे थे
वह पौधों को
पानी देने में मगन था
भीतर ही भीतर
जब सब अपनी मनौतियों में
थे सराबोर
वह दुखी था –
कि अंततः उस बिल्ली को
बचाने में नहीं हुआ कामयाब
बँगले में
संपन्नता थी हर जगह
पर उसे गम था
आदमी के न होने का

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