बाँध रोशनी की गठरी | जगदीश व्योम
बाँध रोशनी की गठरी | जगदीश व्योम

बाँध रोशनी की गठरी | जगदीश व्योम

बाँध रोशनी की गठरी | जगदीश व्योम

बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।

पूरी रात चले हम
लेकिन मंजिल नहीं मिली
लौट-फेर आ गए वहीं
पगडंडी थी नकली
सफर गाँव का और
अँधेरे की चादर काली।

ताल ठोंक कर तम के दानव
अकड़े, खड़े हुए
नन्हें दीप
जुटाकर साहस
फिर भी अड़े हुए
हवा समय का फेर समझकर
बजा रहा ताली।

लक्ष्य हेतु जो चला कारवाँ
कितने भेद हुए
रामराज की बातें सुन-सुन
बाल सफेद हुए
ज्वार ज्योति का उठे
प्रतीक्षा
दिग-दिगंत वाली।

लड़ते-लड़ते दीप अगर
तम से, थक जाएगा
जुगुनू है तैयार,
अँधेरे से भिड़ जाएगा
विहँसा व्योम
देख दीपक की
अद्भुत रखवाली।

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