बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ | चंद्रकांत देवताले
बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ | चंद्रकांत देवताले

बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ | चंद्रकांत देवताले

बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ | चंद्रकांत देवताले

कोई लय नहीं थिरकती उनके होठों पर
नहीं चमकती आँखों में
जरा-सी भी कोई चीज
गठरी-सी बनी बैठी हैं सटकर
लड़कियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की
फैलाकर चिथड़े पर
अपने-अपने आगे
सैलाना वाली मशहूर
बालम ककड़ियों की ढीग

‘सैलाना की बालम ककड़ियाँ
केसरिया और खट्टी-मीठी नरम’
– जैसा कुछ नहीं कहती
फकत भयभीत चिड़ियों-सी
देखती रहती हैं लड़कियाँ सात

बड़ी फजर से आकर बैठ गई हैं
पत्थर के घोड़े के पास
बैठी होंगी डाट की पुलिया के पीछे
चौमुखी पुल के पास
होंगी अभी भी सड़क नापती बाजनावाली
चाँदी के कड़े जरूर कीचड़ में सने
पाँवों में पुश्तैनी चमक के साथ

होंगी और भी दूर-दूर
समुद्र के किनारे पहाड़ों पर
बस्तर के शाल-वनों की छाया में
माँडू-धार की सड़क पर
झाबुआ की झोपड़ियों से
अलसाई निकलती हुई
पीले फूल के खयालों के साथ
होंगी अँधेरे के कई-कई मोड़ पर
इस वक्त मेरे देश की कितनी ही आदिवासी बेटियाँ

शहर-कस्बों के घरों में
पसरी है अभी तक
अंतिम पहर के बाद की नींद
बस शुरू होने को है थोड़ी ही देर में
कप-बसी की आवाजों के साथ दिन
लोटा भर चाय पीकर
आएँगे धोती खोंसते
अँगोछा फटकारते
खरीदने ककड़ी
उम्रदराज सेठ-साहूकार
बनिया-बक्काल
आँखों से तौलते-भाँपते ककड़ियाँ
बंडी की जेबों से खनकाते रेजगी
ककड़ियों को नहीं पर लड़कियों को
मुग्ध कर देगी
रेजगी की खनक आवाज

कवि लोग
अखबार ही पढ़ते लेटे होंगे
अभी भी कुढ़ते खबरों पर
दुनिया पर हँसते चिलम भर रहे होंगे संत
शुरू हो गया होगा
मस्तिष्क में हाकिमों के
दिन भर की बैठकों-मुलाकातों
और शाम के क्लब-डिनर का हिसाब
सनसनीखेज खबरों की दाढ़ी बनाने का कमाल
सोच विहँस रहे होंगे मुग्ध पत्रकार
धोती पकड़ फहराती कार पर चढ़ने के पहले
किधर देखते होंगे मंत्री
सर्किट हाउस के बाद
दो बत्ती फिर घोड़ा
पर नहीं मुस्काकर पढ़ने लगता है मंत्री कागज
कागज के बीचोंबीच गढ़ने लगता है अपना कोई फोटू चिंतातुर
नहीं दिखती उसे कभी नहीं दिखतीं
बिजली के तार पर बैठी हुई चिड़ियाएँ सात

मैं सवारी के इंतजार में खड़ा हूँ
और
ये ग्राहक के इंतजार में बैठी हैं
सोचता हूँ बैठी रह सकेंगी क्या
ये अंतिम ककड़ी बिकने तक भी
ये भेड़ों-सी खदेड़ी जाएँगी
थोड़ा-सा दिन चलने के बाद
फोकट में ले जाएगा ककड़ी
संतरी एक से एक नहीं
सातों से एक-एक कुल सात
फिर पहुँचा देगा कहीं-कहीं कुल पाँच
बीवी खाएगी
थानेदार की हँसते हुए ककड़ी
छोटे थानेदार खुद काटेंगे
फोकट की ककड़ी
कितना रौब गाँठेगी
घर-भर में
अड़ोस-पड़ोस तक
महकेगा सैलाना की ककड़ी का स्वाद
याद नहीं आएँगी
किसी को लड़कियाँ सात
कित्ते अँधेरे उठी होंगी
चली होंगे कित्ते कोस
ये ही ककड़ियाँ पहुँचती होंगी
संभाग से भी आगे रजधानी तक भूपाल

पीठवाले हिस्से के चमकते काँच से
कभी-कभी देख सकते हैं
इन ककड़ियों का भाग्य
जो कारों की मुसाफिर बन
पहुँच जाती हैं कहाँ-कहाँ
राजभवन में भी पहुँची होंगी
कभी न कभी
जगा होगा इनका भाग
सातों लड़कियाँ ये
सात सिर्फ यहाँ अभी इत्ती सुबह
दोपहर तक भिंडी, तोरू के ढीग के साथ
हो जाएगी इनकी लंबी कतार
कहीं गोल झुंड
ये सपने की तरह देखती रहेंगी
सब कुछ बीच-बीच में
ओढ़नी को कसती
हँसती आपस में
गिनती रहेंगी खुदरा

सोचतीं मिट्टी का तेल गुड़
इनकी जुबान पर नहीं आएगा कभी
शक्कर का नाम

बीस पैसे में
पूरी ढीग भिंडी की
दस पैसे में तोरू की
हजारपती-लखपती
करेंगे इनसे मोल-तोल
ककड़ी तीस से पचास पैसे के बीच ऐंठकर
खुश-खुश जाएँगे घर
जैसे जीता जहान

साँझ के झुटपुटे के पहले
लौट चलेंगे इनके पाँव उसी रास्ते
इतनी स्वतंत्रता में यहाँ
शेष नहीं रहेगा
दुख की परछाईं का झीना निशान
गंध डोचरा-ककड़ी की
देह के साथ
लय किसी गीत की के टुकड़े की होठों पर
पहुँच मकई के आटे को गूँधेंगे इनके हाथ
आग के हिस्से जलेंगे
यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ दूरी पर
अँधेरा फटेगा उतनी आग भर
फिर सन्नाटा गूँजेगा थोड़ी देर बाद
फिर जंगलों के झोपड़ी-भर अँधेरे में
धरती का इतना जीवन
सो जाएगा गठरी बनकर
बाहर रोते रहेंगे सियार
मैं भी लौट आऊँगा
देर रात तक
सोते वक्त भी
क्या काँटों की तरह
मुझमें चुभती रहेंगी
अभी इत्ती सुबह की
ये लड़कियाँ सात…

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *