बची एक लोहार की | राम सेंगर
बची एक लोहार की | राम सेंगर

बची एक लोहार की | राम सेंगर

बची एक लोहार की | राम सेंगर

बढ़े फासले अपरिचयों के
और भी,
साझेदारी कैसी भाव-विचार की।

रिश्ते होते
नए अर्थ को खोलते
संग-साथ के सहकारी उत्ताप से
उड़ीं परस्परता की मानों धज्जियाँ
अविश्वास के इसी घिनौने पाप से
जोड़-तोड़ की होड़ों में
धुँधुआ गई
पारदर्शिता, आपस के व्यवहार की।

गवेषणा में
सच के पहलू दब गए
जो उभरा सो, सच से कोसों दूर था
बात उठी ही नहीं निकष के दोष की
पड़तालों का मुद्दा उठा जरूर था
चोर द्वार से
छल, नीयत में आ घुसा
धरी रही अधलिखी पटकथा प्यार की।

समरसता में
छिपा सिला तदवीर का
बने महास्वर, कलकंठों के राग से
पटरी पर आते
दिन अच्छे एक दिन
तमस काटते, अपनी मिलजुल आग से
हुआ न ऐसा कुछ
सुनार की सौ हुईं
विपर्यास पर, बची एक लोहार की।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *