अनुभव | अरुण कमल
अनुभव | अरुण कमल

अनुभव | अरुण कमल

अनुभव | अरुण कमल

और तुम इतना आहिस्ते मुझे बाँधती हो
जैसे तुम कोई इस्तरी हो और मैं कोई भीगी सलवटों भरी कमीज
तुम आहिस्ते-आहिस्ते मुझे दबाती सहला रही हो
और भाप उठ रही है और सलवटें सुलट-खुल रही हैं
इतने मरोड़ों की झुर्रियाँ –
तुम मुझ में कितनी पुकारें उठा रही हो
कितनी बंशियाँ डाल रही हो मेरे जल में
मैं जल चुका कागज जिस पर दौड़ती जा रही आखिरी लाल चिंगारी
मैं तुम्हारे जाल को भर रहा हूँ मैं पानी।

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